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________________ ३४८ स्थानाङ्गसूत्रम् दुःखशय्या-सूत्र ४५०- चत्तारि दुहसेजाओ पण्णत्ताओ, तं जहा १. तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छते भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएइ, णिग्गंथं पावयणं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति—पढमा दुहसेजा। २. अहावरा दोच्चा दुहसेजा—से णं मुंडे भवित्ता, अगाराओ जाव [अणगारियं] पव्वइए सएणं लाभेणं णो तुस्सति, परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति अभिलसति, परस्स लाभमासाएमाणे जाव [ पीहेमाणे पत्थेमाणे ] अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ, विणिघातमावजति—दोच्चा दुहसेज्जा। ३. अहावरा तच्चा दुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता जाव [ अगाराओ अणगारियं] पव्वइए दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाइए जाव [ पीहेति पत्थेति ] अभिलसति, दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे जाव [ पीहेमाणे पत्थेमाणे ] अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावजति तच्चा दुहसेज्जा। ४. अहावरा चउत्था दुहसेज्जा से णं मुंडे जाव [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइए, तस्स णं एवं भवति-जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहण-परिमद्दण-गातब्भंगगातुच्छोलणाई लभामि, जप्पभिई च णं अहं मुंडे जाव [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइए तप्पभिडं च णं अहं संवाहण जाव[परिमहण-गातब्भंगागातच्छोलणाई णो लभामि। सेणं संवाहण जाव [ परिमद्दण-गातब्भंग] गातुच्छोलणाई आसाएति जाव [ पीहेति पत्थेति ] अभिलसति, से णं संवाहण जाव [ परिमद्दण-गातब्भंग] गातुच्छोलणाई आसाएमाणे जाव [ पीहेमाणे पत्थेमाणे अभिलसमाणे ] मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति—चउत्था दुहसेज्जा। चार दुःखशय्याएं कही गई हैं, जैसे १. उनमें पहली दुःखशय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो निर्ग्रन्थप्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थप्रवचन में श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता। वह निर्ग्रन्थप्रवचन पर अश्रद्धा करता हुआ, अप्रतीति करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मन को ऊंचा-नीचा करता है और विनिघात (धर्म-भ्रंशता) को प्राप्त होता है। यह उसकी पहली दुःखशय्या है। २. दूसरी दुःखशय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हो, अपने लाभ से (भिक्षा में प्राप्त भक्त-पानादि से) सन्तुष्ट नहीं होता है, किन्तु दूसरे को प्राप्त हुए लाभ का आस्वाद करता है, इच्छा करता है, प्रार्थना करता है और अभिलाषा करता है। वह दूसरे के लाभ का आस्वाद करता हुआ, इच्छा करता हुआ,
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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