________________
चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश
३११
विवेचन— संस्कृत टीकाकार ने 'पत्तियं' इस प्राकृत पद के दो अर्थ किये हैं—एक स्वार्थ में 'क' प्रत्यय मानकर प्रीति अर्थ किया है और दूसरा—'प्रत्यय' अर्थात् प्रतीति या विश्वास अर्थ भी किया है। जैसे प्रथम अर्थ के अनुसार उक्त चारों सूत्रों की व्याख्या की गई है, उसी प्रकार प्रतीति अर्थ को दृष्टि में रखकर उक्त सूत्रों के चारों भंगों की व्याख्या करनी चाहिए। जैसे कोई पुरुष अपनी प्रतीति करता है, दूसरे की नहीं इत्यादि।
जो पुरुष दूसरे के मन में प्रीति या प्रतीति उत्पन्न करना चाहते हैं और प्रीति या प्रतीति उत्पन्न कर देते हैं, उनकी ऐसी प्रवृत्ति के तीन कारण टीकाकार ने बतलाये हैं—स्थिर-परिणामक होना, उचित सन्मान करने की निपुणता और सौभाग्यशालिता। जिस पुरुष में ये तीनों गुण होते हैं, वह सहज में ही दूसरे के मन में प्रीति या प्रतीति उत्पन्न कर देता है, किन्तु जिसमें ये गुण नहीं होते हैं, वह वैसा नहीं कर पाता।
जो पुरुष दूसरे के मन में अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न करना चाहता है, किन्तु उत्पन्न नहीं कर पाता, ऐसी मनोवृत्ति की व्याख्या भी टीकाकार ने दो प्रकार से की है
१. अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न करने के पूर्वकालिक भाव उत्तरकाल में दूर हो जाने पर दूसरे के मन में अप्रीति या अप्रतीति उत्पन्न नहीं कर पाता।
२. अप्रीति या अप्रतीतिजनक कारण के होने पर भी सामने वाले व्यक्ति का स्वभाव प्रीति या प्रतीति के योग्य होने से मनुष्य उससे अप्रीति या अप्रतीति नहीं कर पाता है।
'पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति' इत्यादि का अर्थ टीकाकार के संकेतानुसार इस प्रकार भी किया जा सकता है
१. कोई पुरुष दूसरे के मन में यह प्रीति या प्रतीति करता है', ऐसी छाप जमाना चाहता है और जमा भी देता
२. कोई पुरुष दूसरे के मन में यह प्रीति या प्रतीति करता है' ऐसी छाप जमाना चाहता है, किन्तु जमा नहीं
पाता।
३. कोई पुरुष दूसरे के मन में यह अप्रीति या अप्रतीति करता है' ऐसी छाप जमाना चाहता है और जमा भी देता है।
४. कोई पुरुष दूसरे के मन में यह अप्रीति या अप्रतीति करता है' ऐसी छाप जमाना चाहता है और जमा नहीं पाता। इसी प्रकार सामने वाले व्यक्ति के आत्म-साधक:
की अपेक्षा भी चारों भंगों की व्याख्या की जा सकती है। उपकार-सूत्र
३६१- चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा—पत्तोवए, पुप्फोवए, फलोवए, छायोवए।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—पत्तोवारुक्खसमाणे, पुष्फोवारुक्खसमाणे, फलोवारुक्खसमाणे, छायोवारुक्खसमाणे।
वृक्ष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे