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________________ ३१० स्थानाङ्गसूत्रम् १. आत्म-प्रीतिकर, पर-प्रीतिकर नहीं— कोई पुरुष अपने आप से प्रीति करता है, किन्तु दूसरे से प्रीति नहीं करता है। २. पर-प्रीतिकर, आत्म-प्रीतिकर नहीं— कोई पुरुष पर से प्रीति करता है, किन्तु अपने आप से प्रीति नहीं करता है। ३. आत्म-प्रीतिकर भी, पर-प्रीतिकर भी— कोई पुरुष अपने से भी प्रीति करता है और पर से भी प्रीति करता है। ४. न आत्म-प्रीतिकर, न पर-प्रीतिकर— कोई पुरुष न अपने आप से प्रीति करता है और न पर से भी प्रीति करता है (३५८)। ३५९- चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति, पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तियं पवेसेति, अप्पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेति, अप्पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तियं पवेसेति। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे १. प्रीति-प्रवेशेच्छु, प्रीति-प्रवेशक— कोई पुरुष 'दूसरे के मन में प्रीति उत्पन्न करूं' ऐसा विचार कर प्रीति उत्पन्न करता है। २. प्रीति-प्रवेशेच्छु, अप्रीति-प्रवेशक– कोई पुरुष 'दूसरे के मन में प्रीति उत्पन्न करूं' ऐसा विचार कर भी अप्रीति उत्पन्न करता है। ३. अप्रीति-प्रवेशेच्छु, प्रीति-प्रवेशक– कोई पुरुष 'दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करूं' ऐसा विचार कर भी प्रीति उत्पन्न करता है। ४. अप्रीति-प्रवेशेच्छु, अप्रीति-प्रवेशक– कोई पुरुष 'दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न करूं' ऐसा विचार कर अप्रीति उत्पन्न करता है (३५९)। ३६०–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—अप्पणो णाममेगे पत्तियं पवेसेति णो परस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं पवेसेति णो अप्पणो, एगे अप्पणोवि पत्तियं पवेसेति परस्सवि, एगे णो अप्पणो पत्तियं पवेसेति णो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे १. आत्म-प्रीति-प्रवेशक, पर-प्रीति-प्रवेशक नहीं— कोई पुरुष अपने मन में प्रीति (अथवा प्रतीति)का प्रवेश कर लेते हैं किन्तु दूसरे के मन में प्रीति का प्रवेश नहीं कर पाते। २. पर-प्रीति-प्रवेशक, आत्म-प्रीति-प्रवेशक नहीं— कोई पुरुष दूसरे के मन में प्रीति का प्रवेश कर देते हैं, किन्तु अपने मन में प्रीति का प्रवेश नहीं कर पाते। ३. आत्म-प्रीति-प्रवेशक भी, पर-प्रीति-प्रवेशक भी— कोई पुरुष अपने मन में भी प्रीति का प्रवेश कर पाता है और पर के मन में भी प्रीति का प्रवेश कर देता है। ४. न आत्म-प्रीति-प्रवेशक, न पर-प्रीति-प्रवेशक— कोई पुरुष न अपने मन में प्रीति का प्रवेश कर पाता है और न पर के मन में प्रीति का प्रवेश कर पाता है (३६०)।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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