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स्थानाङ्गसूत्रम्
१. पत्रोपग- कोई वृक्ष पत्तों से सम्पन्न होता है। २. पुष्पोपग— कोई वृक्ष फूलों से सम्पन्न होता है। ३. फलोपग— कोई वृक्ष फलों से सम्पन्न होता है। ४. छायोपग— कोई वृक्ष छाया से सम्पन्न होता है। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. पत्रोपग वृक्ष समान— कोई पुरुष पत्तों वाले वृक्ष के समान स्वयं सम्पन्न रहता है, किन्तु दूसरों को कुछ नहीं देता।
२. पुष्पोपग वृक्ष समान— कोई पुरुष फूलों वाले वृक्ष के समान अपनी सुगन्ध दूसरों को देता है। ३. फलोपग वृक्ष समान— कोई पुरुष फलों वाले वृक्ष के समान अपना धनादि दूसरों को देता है।
४. छायोपग वृक्ष समान— कोई पुरुष छाया वाले वृक्षों के समान अपनी शीतल छाया में दूसरों को आश्रय देता है (३६१)।
विवेचन— उक्त अर्थ लौकिक पुरुषों की अपेक्षा से किया गया है। लोकोत्तर पुरुषों की अपेक्षा चारों भंगों का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए।
१. कोई गुरु पत्तों वाले वृक्ष के समान अपनी श्रुत-सम्पदा अपने तक ही सीमित रखता है। २. कोई गुरु फूल वाले वृक्ष के समान शिष्यों को सूत्र-पाठ की वाचना देता है। ३. कोई गुरु फल वाले वृक्ष के समान शिष्यों को सूत्र के अर्थ की वाचना देता है।
४. कोई गुरु छाया वाले वृक्ष के समान शिष्यों को सूत्रार्थ का परावर्तन एवं अपाय-संरक्षण आदि के द्वारा निरन्तर आश्रय देता है। आश्वास-सूत्र
३६२-भारण्णं वहमाणस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता, तं जहा१. जत्थ णं अंसाओ अंसं साहरइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते। २. जत्थवि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परितुवति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते।
३. जत्थवि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवेति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते।
४. जत्थवि य णं आवकहाए चिट्ठति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते। एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता, तं जहा
१. जत्थवि य णं सीलव्वत-गुणव्वत-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई पडिवजति, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते।
२. जत्थवि य णं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते।
३. जत्थवि य णं चाउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेइ, तत्थवि य से एगे आसासे पण्णत्ते।