SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ स्थान- द्वितीय उद्देश २९९ द्वार-सूत्र ३३५- लवणस्स णं समुद्दस्स चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिते। ते णं दारा चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं पण्णत्ता। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमद्वितीया परिवति, तं जहा विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। लवणसमुद्र के चार द्वार कहे गये हैं, जैसे१. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित। वे द्वार चार योजन विस्तृत और चार योजन प्रवेश (मुख) वाले कहे गये हैं। उनमें पल्योपम की स्थितिवाले यावत् महर्धिक चार देव रहते हैं, जैसे १. विजयदेव, २. वैजयन्तदेव, ३. जयन्तदेव, ४. अपराजितदेव (३३५)। धातकीषण्डपुष्करवर सूत्र ३३६- धयइंसडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते। धातकीषण्ड द्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ (वलय का विस्तार) चार लाख योजन कहा गया है (३३६)। ३३७- जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बहिया चत्तारि भरहाई, चत्तारि एरवयाई। एवं जहा सदुद्देसए तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मंदरचूलियाओ। जम्बूद्वीप नामक द्वीप के बाहर (धातकीषण्ड और पुष्करवर द्वीप में) चार भरत क्षेत्र चार ऐरवत क्षेत्र हैं। इस प्रकार जैसे शब्दोद्देशक (दूसरे स्थान के तीसरे उद्देशक) में जो बतलाया गया है, वह सब पूर्ण रूप से यहां जान लेना चाहिए। वहां जो दो-दो की संख्या के बतलाये गये हैं, वे यहां चार-चार जानना चाहिए। धातकीषण्ड में दो मन्दर और दो मन्दरचूलिका तथा पुष्करवरद्वीप में भी दो मन्दर और दो मन्दरचूलिका, इस प्रकार जम्बूद्वीप के बाहर चार मन्दर और चार मन्दर-चूलिका कही गई है (३३७)। नन्दीश्वर-वर द्वीप-सूत्र ३३८- णंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल-विक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउद्दिसिं चत्तारि अंजणगपव्वता पण्णत्ता, तं जहा—पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वते, दाहिणिल्ले अंजणगपव्वते, पच्चत्थिमिल्ले अंजणगपव्वते, उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते। ते णं अंजणगपव्वता चउरासीतिं जोयणसहस्साइं उठें उच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेण, तदणंतरं च णं मायाए-मायाए परिहायमाणा-परिहायमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पण्णत्ता मूले इक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, उवरिं तिण्णि-तिण्णि जोयणसहस्साई एगं च बावटुं जोयणसतं परिक्खेवेणं। मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वअंजणमया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy