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चतुर्थ स्थान- द्वितीय उद्देश
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संक्रम चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. प्रकृति-संक्रम, २. स्थिति-संक्रम, ३. अनुभाव-संक्रम, ४. प्रदेश-संक्रम (२९७)।
२९८ – चउव्विहे णिधत्ते पण्णत्ते, तं जहा—पगतिणिधत्ते, ठितिणिधत्ते, अणुभावणिधत्ते, पएसणिधत्ते।
निधत्त चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. प्रकृति-निधत्त, २. स्थिति-निधत्त, ३. अनुभाव-निधत्त, ४. प्रदेश-निधत्त (२९८)।
२९९– चउविहे णिकायिते पण्णत्ते, तं जहा—पगतिणिकायिते, ठितिणिकायिते, अणुभावणिकायिते, पएसणिकायिते।
निकाचित चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. प्रकृति-निकाचित, २. स्थिति-निकाचित, ३. अनुभाव-निकाचित, ४. प्रदेश-निकाचित (२९९)।
विवेचन— सूत्र २९० से लेकर २९९ तक के १० सूत्रों में कर्मों की अनेक अवस्थाओं का निरूपण किया गया है। कर्मशास्त्र में कर्मों की १० अवस्थाएं बतलाई गई हैं-१.बन्ध, २. उदय, ३. सत्त्व, ४. उदीरणा, ५. उद्वर्तन या उत्कर्षण, ६. अपवर्तन या अपकर्षण, ७. संक्रम, ८. उपशम, ९. निधत्ति और १०. निकाचित । इसमें से उदय और सत्त्व को छोड़कर शेष आठ की 'करण' संज्ञा है। क्योंकि उनके सम्पादन के लिए जीव को अपनी योग-संज्ञक वीर्यशक्ति का विशेष उपक्रम करना पड़ता है। उक्त १० अवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है
१. बन्ध-जीव और कर्म-पुद्गलों के गाढ़ संयोग को बन्ध कहते हैं। २. उदय– बन्धे हुए कर्म-पुद्गलों के यथासमय फल देने को उदय कहते हैं। ३. सत्त्व— बंधे कर्मों का जीव में उदय आने तक अवस्थित रहना सत्त्व कहलाता है। ४. उदीरणा— बंधे कर्मों का उदयकाल आने के पूर्व ही अपवर्तन करके उदय में लाने को उदीरणा कहते
५. उद्वर्तन- बंधे कर्मों की स्थिति और अनुभाव-शक्ति के बढ़ाने को उद्वर्तन कहते हैं। ६. अपवर्तन- बंधे कर्मों की स्थिति और अनुभाग-शक्ति के घटाने को अपवर्तन कहते हैं। ७. संक्रम- एक कर्म-प्रकृति के सजातीय अन्य प्रकृति में परिणमन होने को संक्रम कहते हैं। ८. उपशम— बंधे हुए कर्म का उदय-उदीरणा के अयोग्य करना उपशम कहलाता है।
९. निधत्ति— बंधे हुए जिस कर्म को उदय में भी न लाया जा सके और उद्वर्तन, अपवर्तन एवं संक्रम भी न किया जा सके, ऐसी अवस्था-विशेष को निधत्ति कहते हैं।
१०. निकाचित— बंधे हुए जिस कर्म का उपशम, उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रम आदि कुछ भी न किया जा सके, ऐसी अवस्था-विशेष को निकाचित कहते हैं।