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चतुर्थ स्थान — द्वितीय उद्देश
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के समय इन्द्रमह, स्कन्दमह, यक्षमह और भूतमह ये चार महोत्सव जन-साधारण में प्रचलित थे । निशीथभाष्य के अनुसार आषाढ़ी पूर्णिमा को इन्द्रमह, आश्विनी पूर्णिमा को स्कन्दमह, कार्तिकी पूर्णिमा को यक्षमह और चैत्री पूर्णिमा को भूतमह मनाया जाता था। इन उत्सवों में सम्मिलित होने वाले लोग मदिरा पान करके नाचते-कूदते हुए अपनी परम्परा के अनुसार इन्द्रादि की पूजनादि करते थे । उत्सव के दूसरे दिन प्रतिपदा को अपने मित्रादिकों को बुलाते और मदिरापान पूर्वक भोजनादि करते - कराते थे ।
इन महाप्रतिपदाओं के दिन स्वाध्याय-निषेध के अनेक कारणों में से एक प्रधान कारण यह बताया गया है। कि महोत्सव में सम्मिलित लोग समीपवर्ती साधु और साध्वियों को स्वाध्याय करते अर्थात् जोर-जोर से शास्त्रवाचनादि करते हुए देखकर भड़क सकते हैं और मदिरा पान से उन्मत्त होने के कारण उपद्रव भी कर सकते हैं। अतः यही श्रेष्ठ है कि उस दिन साधु-साध्वी मौनपूर्वक ही अपने धर्म - कार्यों को सम्पन्न करें। दूसरा कारण यह भी बताया गया है कि जहां समीप में जनसाधारण का जोर-शोर से शोर-गुल हो रहा हो, वहां पर साधु-साध्वी एकाग्रतापूर्वक शास्त्र की शब्द या अर्थवाचना को ग्रहण भी नहीं कर सकते हैं।
२५७ णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा —— पढमाए, पच्छिमाए, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते ।
निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को चार सन्ध्याओं में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, जैसे—
१. प्रथम सन्ध्या —— सूर्योदय का पूर्वकाल ।
२. पश्चिम सन्ध्या सूर्यास्त के पीछे का काल ।
३. मध्याह्न सन्ध्या-दिन के मध्य समय का काल ।
४. अर्धरात्र सन्ध्या—- आधी रात का समय ( २५७ ) ।
विवेचन दिन और रात्रि के सन्धि-काल को सन्ध्या कहते हैं । इसी प्रकार दिन और रात्रि के मध्य भाग को भी सन्ध्या कहा जाता है, क्योंकि वह पूर्वभाग और पश्चिमभाग (पूर्वाह्न और अपराह्न ) का सन्धिकाल है। इन सन्ध्याओं में स्वाध्याय के निषेध का कारण यह बताया गया है कि ये चारों सन्ध्याएं ध्यान का समय मानी गई हैं। स्वाध्याय से ध्यान का स्थान ऊंचा है, अतः ध्यान के समय में ध्यान ही करना उचित है ।
२५८— कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चउक्ककालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा पुव्वण्हे, अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे ।
निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को चार कालों में स्वाध्याय करना कल्पता है, जैसे
दिन के प्रथम पहर में ।
दिन के अन्तिम पहर में ।
१. पूर्वाह्न में
२. अपराह्न में
३. प्रदोष में ४. प्रत्यूष में
लोकस्थिति-सूत्र
२५९ - चउव्विहा लोगट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा — आगासपतिट्ठिए वाते, वातपतिट्ठिए उदधी,
रात के प्रथम पहर में ।
रात के अन्तिम पहर में (२५८) ।