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________________ २७२ स्थानाङ्गसूत्रम् १. विवेक- अशुद्ध भावों को त्यागकर शरीर और आत्मा की भिन्नता का विचार करना। २. व्युत्सर्ग- वस्त्र-पात्रादि और शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग करना। ३. प्रासुक– असु नाम प्राण का है, जिस बीज, वनस्पति और जल आदि में से प्राण निकल गये हों ऐसी अचित्त या निर्जीव वस्तु को प्रासुक कहते हैं। ४. एषणीय– उद्गम आदि दोषों से रहित साधुओं के लिए कल्प्य आहार। ५. उञ्छ— अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लिया जाने वाला भक्त-पान। ६. सामुदानिक- याचनावृत्ति से भिक्षा ग्रहण करना। २५५- चउहि ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा [असि समयसि ?] अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुप्पजेजा, तं जहा १. इथिकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं णो कहेत्ता भवति। २. विवेगेण विउस्सगेणं सम्ममप्पाणं भावेत्ता। ३. पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति। ४. फासुयस्स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्मं गवेसित्ता भवति। इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा जाव [अस्सि समयंसि ?] अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुप्पज्जेजा। चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को अभीष्ट अतिशय-युक्त ज्ञान दर्शन तत्काल उत्पन्न होते हैं, जैसे१. जो स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा को नहीं कहता। २. जो विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा की सम्यक् प्रकार से भावना करता है। ३. जो पूर्वरात्रि और अपर रात्रि के समय धर्म ध्यान करता हुआ जागृत रहता है। ४. जो प्रासुक, एषणीय, उञ्छ और सामुदानिक भिक्षा को सम्यक् प्रकार से गवेषणा करता है। इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के अभीष्ट, अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल उत्पन्न हो जाते हैं (२५५)। स्वाध्याय-सूत्र २५६- णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—आसाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए, कत्तियपाडिवए, सुगिम्हगपाडिवए। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को चार महाप्रतिपदाओं में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, जैसे१. आषाढ़-प्रतिपदा- आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली सावन की प्रतिपदा। २. इन्द्रमह-प्रतिपदा- आसौज मास की पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली कार्तिक की प्रतिपदा। ३. कार्तिक-प्रतिपदा— कार्तिकी पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली मगसिर की प्रतिपदा। ४. सुग्रीष्म-प्रतिपदा-चैत्री पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली वैशाख की प्रतिपदा (२५६)। विवेचन—किसी महोत्सव के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहा जाता है। भगवान् महावीर
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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