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[२७] कितने ही विज्ञों का यह अभिमत है कि वल्लभी में सारे आगमों को व्यवस्थित रूप दिया गया। भगवान महावीर के पश्चात् एक सहस्र वर्ष में जितनी भी मुख्य-मुख्य घटनाएं घटित हुईं, उन सभी प्रमुख घटनाओं का समावेश यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहाँ-जहाँ पर समान आलापकों का बार-बार पुनरावर्तन होता था, उन आलापकों को संक्षिप्त कर एक दूसरे का पूर्तिसंकेत एक दूसरे आगम में किया गया। जो वर्तमान में आगम उपलब्ध हैं, वे देवर्द्धिगणि की वाचना के हैं। उसके पश्चात उसमें परिवर्तन और परिवर्धन नहीं हुआ।
___यह सहज ही जिज्ञासा उबुद्ध हो सकती है कि आगम-संकलना यदि एक ही आचार्य की है तो अनेक स्थानों पर विसंवाद क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि सम्भव है इसके दो कारण हों। जो श्रमण उस समय विद्यमान थे उन्हें जो-जो आगम कण्ठस्थ थे, उन्हीं का संकलन किया गया हो। संकलनकर्ता को देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने एक ही बात दो भिन्न आगमों में भिन्न प्रकार से कही है, यह जानकर के भी उसमें हस्तक्षेप करना अपनी अनधिकार चेष्टा समझी हो। वे समझते थे कि सर्वज्ञ की वाणी में परिवर्तन करने से अनन्त संसार बढ़ सकता है। दूसरी बात यह भी हो सकती है—नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी
और वल्लभी वाचना की परम्परा के जो श्रमण बचे थे, उन्हें जितना स्मृति में था, उतना ही देवर्द्धिगणि ने संकलन किया था, सम्भव है वे श्रमण बहुत सारे आलापक भूल ही गये हों, जिससे भी विसंवाद हुये हैं। ६
ज्योतिषकरण्ड की वृत्ति में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस समय जो अनुयोगद्वार सूत्र उपलब्ध है, वह माथुरी वाचना का है। ज्योतिषकरण्ड ग्रन्थ के लेखक आचार्य वल्लभी वाचना की परम्परा के थे। यही कारण है कि अनुयोगद्वार और ज्योतिषकरण्ड के संख्यास्थानों में अन्तर है। अनुयोगद्वार के शीर्षप्रहेलिका की संख्या एक सौ छानवे (१९६) अंकों की है और ज्योतिषकरण्ड में शीर्षप्रहेलिका की संख्या २५० अंकों की है।
. इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमों को व्यवस्थित करने के लिए समय-समय पर प्रयास किया गया है। व्याख्याक्रम और विषयगत वर्गीकरण की दृष्टि से आर्य रक्षित ने आगमों को चार भागों में विभक्त किया है—(१) चरणकरणानुयोगकालिकश्रुत, (२) धर्मकथानुयोग—ऋषिभाषित उत्तराध्ययन आदि, (३) गणितानुयोग—सूर्यप्रज्ञप्ति आदि। (४) द्रव्यानुयोगदृष्टिवाद या सूत्रकृत आदि। प्रस्तुत वर्गीकरण विषय-सादृश्य की दृष्टि से है। व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप हैं(१) अपृथक्त्वानुयोग, (२) पृथक्त्वानुयोग। आर्य रक्षित से पहले अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक सूत्र का चरणकरण, धर्मकथा, गणित और द्रव्य दृष्टि से विश्लेषण किया गया था। यह व्याख्या अत्यन्त ही जटिल थी। इस व्याख्या के लिए प्रकृष्ट प्रतिभा की आवश्यकता होती थी। आर्य रक्षित ने देखा महामेधावी दुर्बलिका पुण्यमित्र जैसे प्रतिभासम्पन्न शिष्य भी उसे स्मरण नहीं रख पा रहे हैं, तो मन्दबुद्धि वाले श्रमण उसे कैसे स्मरण रख सकेंगे। उन्होंने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे चरणं-करण प्रभृति विषयों की दृष्टि से आगमों का विभाजन हुआ। जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है कि अपृथक्त्वानुयोग के काल में प्रत्येक सूत्र का विवेचन चरण-करण आदि चार अनुयोगों तथा ७०० नयों में किया जाता था। पृथक्त्वानुयोग के काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक-पृथक की जाने लगी।
७८. दसवेआलियं, भूमिका, पृ. २७, आचार्य तुलसी ७९. सामाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार-३८ ८०. (क) सामाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार-३८
(ख) गच्छाचार, पत्र ३ से ४ ८१. अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो।
पहुत्ताणुओगकरणे ते अत्था तवो उ वुच्छिन्ना ॥ देविंदवंदिएहिं महाणुभावेहिं रक्खिअ अज्जेहिं। जुगमासज विहत्तो अणुओगो ता कओ चउहा ॥
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७३-७७४ ८२. जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिज्जंति पहुत्ताणुयोगो, अपहत्ताणुजोगो पुण जं एक्केक्कं सुत्तं एतेहिं चउहिं वि अणुयोगेहिं सत्तहिं णयसतेहिं वक्खाणिजंति।
-सूत्रकृताङ्गचूर्णि, पत्र-४