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________________ [२६] पञ्चम वाचना वीर - निर्वाण की दशवीं शताब्दी (९८० या ९९३ ई. सन् ४५४ - ४६६) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमण-संघ एकत्रित हुआ। स्कन्दिल और नागार्जुन के पश्चात् दुष्काल ने हृदय को कम्पा देने वाले नाखूनी पंजे फैलाये । अनेक श्रुतधर श्रमण काल - कवलित हो गये । श्रुत की महान् क्षति हुयी। दुष्काल परिसमाप्ति के बाद वल्लभी में पुन: जैन संघ सम्मिलित हुआ। देवर्द्धिगणि ग्यारह अंग और एक पूर्व से भी अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। श्रमण-सम्मेलन में त्रुटित और अत्रुटित सभी आगमपाठों का स्मृति-सहयोग से संकलन हुआ । श्रुत को स्थायी रूप प्रदान करने के लिए उसे पुस्तकारूढ किया गया। आगम-लेखन का कार्य आर्यरक्षित के युग में अंश रूप से प्रारम्भ हो गया था । अनुयोगद्वार में द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का उल्लेख है। पुस्तक लिखित श्रुत को द्रव्यश्रुत माना गया है।७२ आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के समय में भी आगमों को लिपिबद्ध किया गया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । ३ किन्तु देवर्द्धिगण के कुशल नेतृत्व में आगमों का व्यवस्थित संकलन और लिपिकरण हुआ है, इसलिये आगम-लेखन का श्रेय देवर्द्धिगण को प्राप्त है। इस सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध गाथा है कि वल्लभी नगरी में देवर्द्धिगणि प्रमुख श्रमण संघ ने वीर निर्वाण ९८० में आगमों को पुस्तकारूढ किया था (४ देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समक्ष स्कन्दिली और नागार्जुनीय ये दोनों वाचनाएं थीं, नागार्जुनीय वाचना के प्रतिनिधि आचार्य कालक (चतुर्थ) थे । स्कन्दिली वाचना के प्रतिनिधि स्वयं देवर्द्धिगणि थे। हम पूर्व लिख चुके हैं आर्य स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन दोनों का मिलन न होने से दोनों वाचनाओं में कुछ भेद था । देवर्द्धिगणि ने श्रुतसंकलन का कार्य बहुत ही तटस्थ नीति से किया। आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता देकर नागार्जुनीय वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार कर अपने उदात्त मानस का परिचय दिया, जिससे जैनशासन विभक्त होने से बच गया। उनके भव्य प्रयत्न के कारण ही श्रुतनिधि आज तक सुरक्षित रह सकी । आचार्य देवर्द्धिगणि ने आगमों को पुस्तकारूढ़ किया। यह बात बहुत ही स्पष्ट है। किन्तु उन्होंने किन-किन आगमों को पुस्तकारूढ़ किया ? इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । नन्दीसूत्र में श्रुतसाहित्य की लम्बी सूची है। किन्तु नन्दीसूत्र देवर्द्धिगणि की रचना नहीं है। उसके रचनाकार आचार्य देव वाचक हैं। यह बात नन्दीचूर्णी और टीका से स्पष्ट है।" इस दृष्टि नन्दी सूची में जो नाम आये हैं, वे सभी देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के द्वारा लिपिबद्ध किये गये हों, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। पण्डित दलसुख मालवणिया का यह अभिमत है कि अंगसूत्रों को तो पुस्तकारूढ़ किया ही गया था और जितने अंगबाह्य ग्रन्थ, जो नन्दी से पूर्व हैं, वे पहले से ही पुस्तकारूढ़ होंगे। नन्दी की आगमसूची में ऐसे कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ हैं, जिनके रचयिता देवर्द्धिगणि के बाद के आचार्य हैं। सम्भव है उन ग्रन्थों को बाद में आगम की कोटि में रखा गया हो । ७२. से किं तं... दव्वसु ? पत्तयपोत्थयलिहिअं —अनुयोगद्वार सूत्र ७३. जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्य्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । — योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २०७ ७४. वलहीपुरम्म नयरे, देवड्ढिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थइ आगमु लिहियो नवसय असीआओ विराओ ॥ ७५. परोप्परमसंपण्णमेलावा य तस्समयाओ खंदिल्लनागज्जुणायरिया कालं काउं देवलोगं गया। तेण तुल्लयाए वि तद्दुधरियसिद्धंताणं जो संजाओ कथम (कहमवि) वायणा भेओ सो य न चालिओ पच्छिमेहिं । कहावली - २९८ ७६. नन्दीसूत्र चूर्णि, पृ. १३ ७७. जैनदर्शन का आदिकाल, पृ. ७
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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