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[२८] नन्दीसूत्र में आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है।८३ अंगबाह्य के आवश्यक, आवश्यकव्यतिरिक्त, कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद-प्रभेद किये हैं। दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीय वृत्ति में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो आगम के भेद किये हैं। अंगबाह्य आगमों की सूची में श्वेताम्बर और दिगम्बर में मतभेद हैं। किन्तु दोनों ही परम्पराओं में अंगप्रविष्ट के नाम एक सदृश मिलते हैं, जो प्रचलित हैं।
श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी अंगसाहित्य को मूलभूत आगमग्रन्थ मानते हैं, और सभी की दृष्टि से दृष्टिवाद का सर्वप्रथम विच्छेद हुआ है। यह पूर्ण सत्य है कि जैन आगम साहित्य चिन्तन की गम्भीरता को लिये हुए है। तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म व गहन विश्लेषण उसमें है। पाश्चात्य चिन्तक डॉ.हर्मन जोकोबी ने अंगशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। वे अंगशास्त्र को वस्तुतः जैनश्रुत मानते हैं, उसी के आधार पर उन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया है, और वे उसमें सफल भी हुए हैं।
'जैन आगम साहित्य-मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में मैंने बहुत विस्तार के साथ आगम-साहित्य के हरपहलू पर चिन्तन किया है। विस्तारभय से उन सभी विषयों पर चिन्तन न कर उस ग्रन्थ को देखने का सूचन करता हूँ। यहाँ अब हम स्थानांगसूत्र के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे। स्थानाङ्ग स्वरूप और परिचय
द्वादशांगी में स्थानांग का तृतीय स्थान है। यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। 'स्थान' शब्द अनेकार्थी है। आचार्य देववाचक ने और गुणधर ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं, इसलिए इसका नाम 'स्थान' रखा गया है। जिनदास गणि महत्तर ने८८ लिखा है जिसका स्वरूप स्थापित किया जाय व ज्ञापित किया जाय वह स्थान है। आचार्य हरिभद्र ने कहा है जिसमें जीवादि का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया जाता है, वह स्थान है। 'उपदेशमाला' में स्थान का अर्थ "मान" अर्थात् परिमाण दिया है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थों का उल्लेख है, अत: इसे 'स्थान' कहा गया है। स्थान शब्द का दूसरा अर्थ "उपयुक्त" भी है। इसमें तत्त्वों का क्रम से उपयुक्त चुनाव किया गया है। स्थान शब्द का तृतीय अर्थ "विश्रान्तिस्थल" भी है, और अंग का सामान्य अर्थ"विभाग" से है। इसमें संख्याक्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है। अतः इस का नाम 'स्थान' या "स्थानाङ्ग" है।
आचार्य गुणधर ने स्थानाङ्ग का परिचय प्रदान करते हुये लिखा है कि स्थानाङ्ग में संग्रहनय की दृष्टि से जीव की एकता का निरूपण है, तो व्यवहार नय की दृष्टि से उसकी भिन्नता का भी प्रतिपादन किया गया है। संग्रहनय की अपेक्षा चैतन्य
८३. तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा–अंगपविटुं अंगबाहिरं च ।
-नन्दीसूत्र, सूत्र ७७ ८४. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति १/२० ८५. जैनसूत्राज्-भाग १, प्रस्तावना, पृष्ठ ९
ठाणेणं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्डीए दसट्ठाणगविवड्डियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जति। -नन्दीसूत्र, सूत्र ८२ ८७. ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणामेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि।
—कसायपाहुड, भाग १, पृ. १२३ ८८. 'ठाविजंति त्ति स्वरूपतः स्थाप्यते प्रज्ञाप्यत इत्यर्थः।'
-नन्दीसूत्रचूर्णि, पृ. ६४ तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्.......स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते, व्यवस्थितस्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम्।
नन्दीसूत्र हरिभद्रीया वृत, पृ. ७९ एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ । चतुसंकमणाजुत्तो पंचग्गुणप्पहाणो य॥ छक्कायक्कमजुत्तो उवजुतो सत्तभंगिसब्भावो। अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दसट्टाणिओ भणिओ ॥
-कसायपाहुड, भाग-१, पृ.-११३/६४, ६५
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