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________________ २३२ स्थानाङ्गसूत्रम् २. कोई पुरुष दूसरे का वर्ण्य देखता है, (अहंकारी होने से) अपना नहीं। ३. कोई पुरुष अपना भी वर्ण्य देखता है और दूसरे का भी। ४. कोई पुरुष न अपना वर्ण्य देखता है और न दूसरे का देखता है (१०८)। विवेचन– संस्कृत टीकाकार ने 'वज' इस प्राकृत पद के तीन संस्कृत रूप लिखे हैं—१. वर्ण्य त्याग करने के योग्य कार्य, २. वज्रवद् वा वज्र वज्र के समान भारी हिंसादि महापाप तथा वज' पद में अकार का लोप मान कर उसका संस्कृत रूप 'अवद्य' भी किया है। जिसका अर्थ पाप या निन्द्य कार्य होता है। 'वर्ण्य' पद में उक्त सभी अर्थ आ जाते हैं। १०९– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—अप्पणो णाममेगे वजं उदीरेइ णो परस्स, परस्स णाममेगे वजं उदीरेइ णो अप्पणो, एगे अप्पणोवि वजं उदीरेइ परस्सवि, एगे णो अप्पणो वजं उदीरेइ णो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे १. कोई पुरुष अपने अवध की उदीरणा करता है (कष्ट सहन करके उदय में लाता है अथवा मैंने यह किया, ऐसा कहता है) दूसरे के अवद्य की नहीं। २. कोई पुरुष दूसरे के अवद्य की उदीरणा करता है, अपने अवध की नहीं। .. ३. कोई पुरुष अपने अवद्य की उदीरणा करता है और दूसरे के अवद्य की भी। ४. कोई पुरुष न अपने अवद्य की उदीरणा करता है और न दूसरे के अवद्य की (१०९)। ११०- चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—अप्पणो णाममेगे वजं उवसामेति णो परस्स, परस्स णाममेगे वजं उवसामेति णो अप्पणो, एगे अप्पणोवि वजं उवसामेति परस्सवि, एगे णो अप्पणो वजं उवसामेति णो परस्स। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. कोई पुरुष अपने अवर्ण्य को उपशान्त करता है, दूसरे के अवर्ण्य को नहीं। २. कोई पुरुष दूसरे के अवर्ण्य को उपशान्त करता है, अपने अवर्ण्य को नहीं। ३. कोई पुरुष अपने भी अवर्ण्य को उपशान्त करता है और दूसरे के अवर्ण्य को भी। ४. कोई पुरुष न अपने अवर्ण्य को उपशान्त करता है और न दूसरे के अवर्ण्य को उपशान्त करता है (११०)। लोकोपचार-विनय-सूत्र १११– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—अब्भुटेति णाममेगे णो अब्भुट्ठावेति, अब्भुटावेति णाममेगे जो अब्भुढेति, एगे अब्भुढेति वि अब्भुट्ठावेति वि, एगे णो अब्भुटेति णो अब्भुट्ठावेति। पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. कोई पुरुष (गुरुजनादि को देख कर) अभ्युत्थान करता है, किन्तु (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता नहीं।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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