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________________ १८४ स्थानाङ्गसूत्रम् तदुभयपडिणीए। श्रुत की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं—सूत्र-प्रत्यनीक, अर्थ-प्रत्यनीक और तदुभय-प्रत्यनीक (४९३)। विवेचन– प्रत्यनीक शब्द का अर्थ प्रतिकूल आचरण करने वाला व्यक्ति है। आचार्य और उपाध्याय दीक्षा और शिक्षा देने के कारण गुरु हैं तथा स्थविर वयोवृद्ध, तपोवृद्ध एवं ज्ञान-गरिमा की अपेक्षा गुरु तुल्य हैं । जो इन तीनों के प्रतिकूल आचरण करता है, उनकी यथोचित विनय नहीं करता, उनका अवर्णवाद करता और उनका छिद्रान्वेषण करता है वह गुरु-प्रत्यनीक कहलाता है। जो इस लोक सम्बन्धी प्रचलित व्यवहार के प्रतिकूल आचरण करता है वह इह-लोक प्रत्यनीक है। जो परलोक के योग्य सदाचरण न करके कदाचरण करता है, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहता है और परलोक का निषेध करता है वह परलोक-प्रत्यनीक कहलाता है। दोनों लोकों के प्रतिकूल आचरण करने वाला व्यक्ति उभयलोक-प्रत्यनीक कहा जाता है। साधु के लघु-समुदाय को कुल कहते हैं, अथवा एक आचार्य की शिष्य-परम्परा को कुल कहते हैं। परस्पर-सापेक्ष तीन कुलों के समुदाय को गण कहते हैं तथा संयमी साधना करने वाले सभी साधुओं के समुदाय को संघ कहते हैं। कुल, गण या संघ का अवर्णवाद करने वाला, उन्हें स्नानादि न करने से.म्लेच्छ या अस्पृश्य कहने वाला व्यक्ति समूह की अपेक्षा प्रत्यनीक कहा जाता है। मासोपवास आदि प्रखर तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं । रोगादि से पीड़ित साधु को ग्लान कहते हैं और नव-दीक्षित साधु को शैक्ष कहते हैं। ये तीनों ही अनुकम्पा के पात्र कहे गये हैं। उनके ऊपर जो न स्वयं अनुकम्पा करता है, न दूसरों को उनकी सेवा-शुश्रूषा करने देता है, प्रत्युत उनके प्रतिकूल आचरण करता है, उसे अनुकम्पा की अपेक्षा प्रत्यनीक कहा जाता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक भाव, कर्म-मुक्ति एवं आत्मिक सुख-शान्ति के कारण हैं, उन्हें व्यर्थ कहने वाला और उनकी विपरीत प्ररूपणा करने वाला व्यक्ति भाव-प्रत्यनीक कहलाता है। श्रुत (शास्त्राभ्यास) के तीन अंग हैं—मूल सूत्र, उसका अर्थ तथा दोनों का समन्वित अभ्यास। इन तीनों के प्रतिकूल श्रुत की अवज्ञा करने वाले और विपरीत अभ्यास करने वाले व्यक्ति को श्रुतप्रत्यनीक कहते हैं। अंग-सूत्र ४९४- तओ पितियंगा पण्णत्ता, तं जहा—अट्ठी, अट्ठिमिंजा, केसमंसुरोमणहे। तीन पितृ-अंग (पिता के वीर्य से बनने वाले) कहे गये हैं—अस्थि, मज्जा और केश-दाढ़ी-मूंछ, रोम एवं नख (४९४)। ४९५- तओ माउयंगा पण्णत्ता, तं जहा मंसे, सोणिते, मत्थुलिंगे। तीन मातृ-अंग (माता के रज से बनने वाले) कहे गये हैं—मांस, शोणित (रक्त) और मस्तुलिंग (मस्तिष्क) (४९५)।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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