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________________ तृतीय स्थान - तृतीय उद्देश कहा गया है— आचार्यत्व का, उपाध्यायत्व का और गणित्व का (३५४) । विवेचन — भगवान् महावीर के श्रमण-संघ में आचार्य, उपाध्याय और गणी ये तीन महत्त्वपूर्ण पद माने गये हैं। जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पांच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हैं तथा अपने अधीनस्थ साधुओं से इनका आचरण कराते हैं, जो आगम- सूत्रार्थ के वेत्ता और गच्छ के मेढीभूत होते तथा दीक्षा- शिक्षा देने का जिन्हें अधिकार होता है, उन्हें आचार्य कहते हैं । जो आगम-सूत्र की शिष्यों को वाचना प्रदान करते हैं, उनका अर्थ पढ़ाते हैं, ऐसे विद्यागुरु साधु को उपाध्याय कहते हैं । गण-नायक को गणी कहते हैं । प्राचीन परम्परा के अनुसार ये तीनों पद या तो आचार्यों के द्वारा दिये जाते थे, अथवा स्थविरों के अनुमोदन (अधिकारप्रदान) से प्राप्त होते थे । यह अनुमोदन सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार का होता था । सामान्य अनुमोदन को' अनुज्ञा' और विशिष्ट अनुमोदन को 'समनुज्ञा' कहते हैं। उक्त पद प्राप्त करने वाला व्यक्ति यदि उस पद के योग्य सम्पूर्ण गुणों से युक्त हो तो उसे दिये जाने वाले अधिकार को 'समनुज्ञा' कहा जाता है और यदि वह समग्र गुणों से युक्त नहीं है, तब उसे दिये जाने वाले अधिकार को 'अनुज्ञा' कहा जाता है। किसी साधु के ज्ञान - दर्शन - चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए अपने गण के आचार्य, उपाध्याय या गणी छोड़कर दूसरे गण के आचार्य, उपाध्याय या गणी पास जाकर उसका शिष्यत्व स्वीकार करने को 'उपसम्पदा' कहते हैं। किसी प्रयोजन - विशेष के उपस्थित होने पर आचार्य, उपाध्याय या गणी के पद त्याग करने (विहान) कहते हैं। (देखो ठाणं, पृ. २७५) । वचन - सूत्र ३५५—– तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा तव्वयणे, तदण्णवयणे, णोअवयणे । ३५६— तिविहे अवयणे पण्णत्ते, तं जहा—णोतव्वयणे, णोतदण्णवयणे, अवयणे । शब्द | १५१ वचन तीन प्रकार का कहा गया है— १. तद्वचन — विवक्षित वस्तु का कथन अथवा यथार्थ नाम, जैसे ज्वलन (अग्नि) । २. तदन्यवचन — विवक्षित वस्तु से भिन्न वस्तु का कथन अथवा व्युत्पत्तिनिमित्त से भिन्न अर्थ वाला रूढ ३. नो- अवचन — सार - हीन वचन - व्यापार ( ३५५)। अवचन तीन प्रकार का कहा गया है— १. नो- तद्वचन — विवक्षित वस्तु का अकथन, जैसे घट की अपेक्षा से पट कहना । २. नो-तदन्यवचन— विवक्षित वस्तु का कथन जैसे घट को घट कहना । ३. अवचन— वचन - निवृत्ति (३५६) । मन:- सूत्र ३५७— तिविहे मणे पण्णत्ते, तं जहा तम्मणे, तयण्णमणे, णोअमणे । ३५८ – तिविहे अमणे पण्णत्ते, तं जहा गोतम्मणे, णोतयण्णमणे, अमणे । मन तीन प्रकार का कहा गया है— १. तन्मन — लक्ष्य में लगा हुआ मन ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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