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स्थानाङ्गसूत्रम्
ग्लान (रुग्ण) निर्ग्रन्थ साधु को तीन प्रकार की दत्तियां लेनी कल्पती हैं१. उत्कृष्ट दत्ति— पर्याप्त जल या कलमी चावल की कांजी। २. मध्यम दत्ति- अनेक बार किन्तु अपर्याप्त जल और साठी चावल की कांजी। ३. जघन्य दत्ति- एक बार पी सके उतना जल, तृण धान्य की कांजी या उष्ण जल (३४९)।
विवेचन– धारा टूटे बिना एक बार में जितना जल आदि मिले, उसे एक दत्ति कहते हैं। जितने जल से सारा दिन निकल जाय, उतना जल लेने को उत्कृष्ट दत्ति कहते हैं। उससे कम लेना मध्यम दत्ति है तथा एक बार ही प्यास बुझ सके, इतना जल लेना जघन्य दत्ति है। विसंभोग-सूत्र
३५०– तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा सयं वा दट्टुं, सड्डयस्स वा णिसम्म, तच्चं मोसं आउट्टति, चउत्थं णो आउट्टति। ____ तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक, साम्भोगिक साधु को विसम्भोगिक करता हुआ (भगवान् की) आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है
१. स्वयं किसी को सामाचारी के प्रतिकूल आचरण करता देखकर। २. श्राद्ध (विश्वास-पात्र साधु) से सुनकर।
३. तीन बार मृषा (अनाचार) का प्रायश्चित्त देने के बाद चौथी बार प्रायश्चित्त विहित नहीं होने के कारण (३५०)।
विवेचन-जिन साधुओं का परस्पर आहारादि के आदान-प्रदान का व्यवहार होता है, उन्हें साम्भोगिक कहा जाता है। कोई साम्भोगिक साधु यदि साधु-सामाचारी के विरुद्ध आचरण करता है, उसके उस कार्य को संघ का नेता साधु स्वयं देख ले, या किसी विश्वस्त साधु से सुन ले तथा उसको उसी अपराध की शुद्धि के लिए तीन बार प्रायश्चित्त भी दिया जा चुका हो, फिर भी यदि वह चौथी बार उसी अपराध को करे तो संघ का नेता आचार्य आदि अपनी साम्भोगिक साधु-मण्डली से पृथक् कर सकता है और ऐसा करते हुए वह भगवद्-आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता, प्रत्युत पालन ही करता है। पृथक् किये गये साधु को विसम्भोगिक कहते हैं। अनुज्ञादि-सूत्र
३५१-तिविधा अणुण्णा पण्णत्ता, तं जहा—आयरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए। ३५२तिविधा समणुण्णा पण्णत्ता, तं जहा—आयरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए। ३५३एवं उवसंपया एवं विजहणा [तिविधा उवसंपया पण्णत्ता, तं जहा-आयरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए। ३५४तिविधा विजहणा पण्णत्ता, तं जहा—आयरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए।
अनुज्ञा तीन प्रकार की कही गई है—आचार्यत्व की, उपाध्यायत्व की और गणित्व की (३५१)। समनुज्ञा तीन प्रकार की कही गई है—आचार्यत्व की, उपाध्यायत्व की और गणित्व की (३५२)। (उपसम्पदा तीन प्रकार की कही गई है—आचार्यत्व की, उपाध्यायत्व की और गणित्व की (३५३)। विहान (परित्याग) तीन प्रकार का