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तृतीय स्थान – प्रथम उद्देश
विवेचन- वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली जीव की शक्ति या वीर्य को योग कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहा है। योग के निमित्त से ही कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है। मन से युक्त जीव के योग को मनोयोग कहते हैं। अथवा मन के कृत, कारित और अनुमतिरूप व्यापार को मनोयोग कहते हैं। इसी प्रकार वचनयोग और काययोग का भी अर्थ जानना चाहिए। प्रयोजन-विशेष से किये जाने वाले मन-वचन-काय के व्यापार-विशेष को प्रयोग कहते हैं। योग के समान प्रयोग के भी तीन भेद होते हैं और उनसे कर्मों का विशेष आस्रव और बन्ध होता है। योगों के संरम्भ-समारम्भादि रूप परिणमन को करण कहते हैं । पृथ्वीकायिक जीवों के घात का मन में संकल्प करना संरम्भ कहलाता है। उक्त जीवों को सन्ताप पहुँचाना समारम्भ कहलाता है और उनका घात करना आरम्भ कहलाता है। इस प्रकार योग, प्रयोग और करण इन तीनों के द्वारा जीव, कर्मों का आस्रव और बन्ध करते रहते हैं। साधारणत: योग, प्रयोग और करण को एकार्थक भी कहा गया है। आयुष्य-सूत्र
१७– तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा—पाणे अतिवातित्ता भवति, मुसं वइत्ता भवति, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवति–इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति।
तीन प्रकार से जीव अल्प आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं—प्राणों का अतिपात (घात) करने से, मृषावाद बोलने से और तथारूप श्रमण माहन को अप्रासुक, अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ (दान) करने से। इन तीन प्रकारों से जीव अल्प आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं (१७)।
विवेचन– प्रस्तुत सूत्र में आये विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है—संयम-साधना के अनुरूप वेष के धारक को तथारूप कहते हैं। अहिंसा के उपदेश देनेवाले को माहन कहते हैं। सजीव खानपान की वस्तुओं को अप्रासुक कहते हैं। साधु के लिए अग्राह्य भोजन पदार्थ को अनेषणीय कहते हैं। दाल, भात, रोटी आदि अशन कहलाते हैं। पीने के योग्य पदार्थ पान कहे जाते हैं । फल, मेवा आदि को खाद्य और लौंग, इलायची आदि स्वाद लेने योग्य पदार्थों को स्वाद्य कहते हैं।
१८– तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा—णो पाणे अतिवातित्ता भवइ, णो मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा 'फासुएणं एसणिज्जेणं' असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति।
तीन प्रकार से जीव दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं प्राणों का अतिपात न करने से, मृषावाद न बोलने से और तथारूप श्रमण माहन को प्रामुक्त अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ करने से। इन तीन प्रकारों से जीव दीर्घ आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं (१८)।
१९- तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा—पाणे अतिवातित्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता णिदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमाणित्ता अण्णयरेणं अमणुण्णेणं अपीतिकारणएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ इच्चेतेहिं तिहि