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________________ द्वितीय स्थान — तृतीय उद्देश दो मानवक, दो काश, दो स्पर्श, दो धुर, दो प्रमुख, दो विकट, दो विसन्धि, दो णियल्ल, दो पइल्स, दो जडियाइलग, दो अरुण, दो अग्निल, दो काल, दो महाकालक, दो स्वस्तिक, दो सौवस्तिक, दो वर्धमानक, दो प्रलम्ब, दो नित्यालोक, दो नित्योद्योत, दो स्वयम्प्रभ, दो अवभास, दो श्रेयस्कर, दो क्षेमंकर, दो आभंकर, दो प्रभंकर, दो अपराजित, दो अजरस्, दो अशोक, दो विगतशोक, दो विमल, दो विवत, दो वित्रस्त, दो विशाल, दो शाल, दो सुव्रत, दो अनिवृत्ति, दो एकजटिन्, दो जटिन्, दो करकरिक, दो राजार्गल, दो पुष्पकेतु, दो भावकेतु इन ८८ महाग्रहों ने चार ( संचरण) किया था, चार करते हैं और चार करेंगे (३२५) । ७३ जम्बूद्वीप-वेदिका - पद ३२६ --- जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । जम्बूद्वीप नामक द्वीप की वेदिका दो कोश ऊँची कही गई है (३२६) । लवणसमुद्र- पद ३२७—– लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते । ३२८ - लवणस्स णं समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ (वलयाकार विस्तार) दो लाख योजन कहा गया है ( ३२७) । लवणसमुद्र की वेदिका दो कोश ऊंची कही गई है (३२८) । धातकीषण्ड-पद ३२९ – धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर - दाहिणे णं दो वासा पण्णत्ता—बहुसमतुल्ला जाव तं जहा—भरहे चेव, एरवए चेव । धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र कहे गये हैं— दक्षिण भरत और उत्तर में ऐरवत । वे दोनों क्षेत्र - प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं यावत् आयाम, विष्कम्भ, संस्थान और परिधि की अपेक्षा एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं (३२९)। ३३०– एवं—जहा जंबुद्दीवे तहा एत्थवि भाणियव्वं जाव दोसु वासेसु मणुया, छव्विहंपि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा—भरहे चेव, एरवए चेव, णवरं कूडसामली चेव, धायइरुक्खे चेव । देवा—रुले चेव वेणुदेवे, सुदंसणे चेव । इसी प्रकार जैसा जम्बूद्वीप के प्रकरण में वर्णन किया गया है, वैसा ही यहाँ पर भी कहना चाहिए यावत् भरत और ऐरवत इन दोनों क्षेत्रों में मनुष्य छहों ही कालों के अनुभाव को अनुभव करते हुए विचरते हैं। विशेष इतना ही है कि यहां वृक्ष दो हैं— कूटशाल्मली और धातकीवृक्ष । कूटशाल्मलीवृक्ष पर गरुडकुमार जाति का वेणुदेव और धातकीवृक्ष पर सुदर्शन देव रहता है (३३०) । ३३१ – धायइसंडे दीवे पच्चत्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर- दाहिणे णं दो वासा पण्णत्ता — बहुसमतुल्ला जाव तं जहा—भरहे चेव, एरवए चेव ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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