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________________ द्वितीय स्थान तृतीय उद्देश ५७ अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय पार्श्वस्पृष्ट शब्द को ग्रहण कर लेती है। उसे गाढ संबंध की आवश्यकता नहीं होती। नेत्रेन्द्रिय अपने विषयभूत रूप को अबद्ध और अस्पृष्ट रूप से ही जानती है। इसलिए उसका निर्देश इस सूत्र में नहीं किया गया है। २३१- दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा—परियादितच्चेव, अपरियादितच्चेव। पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—परियादित और अपरियादित (२३१)।। विवेचन–'परियादित' और अपरियादित इन दोनों प्राकृत पदों का संस्कृत रूपान्तर टीकाकार ने दो-दो प्रकार से किया है पर्यायातीत और अपर्यायातीत। पर्यायातीत का अर्थ विवक्षित पर्याय से अतीत पुद्गल होता है और अपर्यायातीत का अर्थ विवक्षित पर्याय में अवस्थित पुद्गल होता है। दूसरा संस्कृत रूप पर्यात्त या पर्यादत्त और अपर्यात्त या अपर्यादत्त कहा है, जिसके अनुसार उनका अर्थ क्रमशः कर्मपुद्गलों के समान सम्पूर्णरूप से गृहीत पुद्गल और असम्पूर्ण रूप से गृहीत पुद्गल होता है। पर्यात्त का अर्थ परिग्रहरूप से स्वीकृत अथवा शरीरादिरूप से गृहीत पुद्गल भी किया गया है और उनसे विपरीत पुद्गल अपर्यात्त कहलाते हैं। २३२- दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा—अत्ता चेव, अणत्ता चेव। पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—आत्त (जीव के द्वारा गृहीत) और अनात्त (जीव के द्वारा अगृहीत) पुद्गल (२३२)। २३३- दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। कंता चेव, अकंता चेव, पिया चेव, अपिया चेव। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मणामा चेव, अमणामा चेव। पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—इष्ट और अनिष्ट; तथा कान्त और अकान्त, प्रिय और अप्रिय, मनोज्ञ और अमनोज्ञ, मनाम और अमनाम (२३३)। विवेचन- सूत्रोक्त पदों का अर्थ इस प्रकार है—इष्ट —जो किसी प्रयोजन विशेष से अभीष्ट हो। अनिष्ट—जो किसी कार्य के लिए इष्ट न हो। कान्त—जो विशिष्ट वर्णादि से युक्त सुन्दर हो। अकान्त—जो सुन्दर न हो। प्रिय-जो प्रीतिकर एवं इन्द्रियों को आनन्द-जनक हो। अप्रिय—जो अप्रीतिकर हो। मनोज्ञ—जिसकी कथा भी मनोहर हो। अमनोज्ञ—जिसकी कथा भी मनोहर न हो। मनाम जिसका मन से चिन्तन भी प्रिय हो। अमनाम जिसका मन से चिन्तन भी प्रिय न हो। . इन्द्रिय-विषय-पद २३४ – दुविहा सदा पण्णत्ता, तं जहा—अत्ता चेव, अणत्ता चेव। इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। कंता चेव, अकंता चेव। पिया चेव, अपिया चेव। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मणामा चेव, अमणामा चेव। २३५- दुविहा रूवा पण्णत्ता, तं जहा–अत्ता चेव, अणत्ता चेव। इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। कंता चेव, अकंता चेव। पिया चेव, अपिया चेव। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मणामा चेव, अमणामा चेव। २३६- दुविहा गंधा पण्णत्ता, तं जहा–अत्ता चेव, अणत्ता चेव। इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव। कंता चेव, अकंता चेव। पिया चेव, अपिया चेव। मणुण्णा चेव, अमणुण्णा चेव। मणामा चेव, अमणामा चेव। २३७- दुविहा रसा पण्णत्ता, तं जहा–अत्ता चेव, अणत्ता
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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