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________________ ५६ स्थानाङ्गसूत्रम् की उत्पत्ति होती है, जैसे घड़ी, मशीन आदि के चलने से। तथा भेद से भी शब्द की उत्पत्ति होती है, जैसे—बांस, वस्त्र आदि के फटने से। पुद्गल-पद २२१- दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहण्णंति, तं जहा–सई वा पोग्गला साहण्णंति, परेण वा पोग्गला साहण्णंति। २२२- दोहिं ठाणेहिं पोग्गला भिजंति, तं जहा सई वा पोग्गला भिजति, परेण वा पोग्गला भिजंति। २२३– दोहिं ठाणेहिं परिपडंति, तं जहा—सई वा पोग्गला परिपडंति, परेण वा पोग्गला परिपडंति। २२४– दोहिं ठाणेहिं पोग्गला परिसडंति, तं जहा—सई वा पोग्गला परिसडंति, परेण वा पोग्गला परिसडंति। २२५- दोहिं ठाणेहिं पोग्गला विद्धंसति, तं जहा—सई वा पोग्गला विद्धंसति, परेण वा पोग्गला विद्धंसंति। दो कारणों से पुद्गल संहत (समुदाय को प्राप्त) होते हैं मेघादि के समान स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल संहत होते हैं और पुरुष के प्रयत्न आदि दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल संहत होते हैं (२२१)। दो कारणों से पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं—स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं—बिछुड़ते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं (२२२)। दो कारणों से पुद्गल नीचे गिरते हैं स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल नीचे गिरते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल नीचे गिरते हैं (२२३)। दो कारणों से पुद्गल परिशडित होते हैं स्वयं अपने स्वभाव से कुष्ठ आदि से गलकर शरीर से पुद्गल नीचे गिरते हैं और दूसरे शस्त्र-छेदनादि निमित्तों से विकृत पुद्गल नीचे गिरते हैं (२२४)। दो स्थानों से पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल विध्वंस को प्राप्त होते हैं (२२५)।। २२६- दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा—भिण्णा चेव, अभिण्णा चेव। २२७ – दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा—भेउरधम्मा चेव, णोभेउरधम्मा चेव। २२८-दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा—परमाणुपोग्गला चेव, णोपरमाणुपोग्गला चेव। २२९- दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहासुहुमा चेव, बायरा चेव। २३०– दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा—बद्धपासपुट्ठा चेव, णोबद्धपासपुट्ठा चेव। पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—भिन्न और अभिन्न (२२६)। पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—भिदुरधर्मा (स्वयं ही भेद को प्राप्त होने वाले) और नोभिदुरधर्मा (स्वयं भेद को नहीं प्राप्त होने वाले) (२२७)। पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—परमाणु पुद्गल और नोपरमाणु रूप (स्कन्ध) पुद्गल (२२८)। पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—सूक्ष्म और बादर (२२९) । पुनः पुद्गल दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध-पार्श्वस्पृष्ट और नोबद्ध-पार्श्वस्पृष्ट (२३०)। विवेचन— जो पुद्गल शरीर के साथ गाढ़ सम्बन्ध को प्राप्त रहते हैं वे बद्ध कहलाते हैं और जो पुद्गल शरीर से चिपके रहते हैं उन्हें पार्श्वस्पृष्ट कहते हैं। घ्राणेन्द्रिय से ग्राह्य गन्ध, रसनेन्द्रिय से ग्राह्य रस और स्पर्शनेन्द्रिय से ग्राह्य स्पर्शरूप पुद्गल बद्धपार्श्वस्पृष्ट होते हैं। अर्थात् स्पर्शन, रसना और घ्राणेन्द्रिय के साथ स्पर्श, रस एवं गंध का गाढा सम्बन्ध होने पर ही इनका ग्रहण-ज्ञान होता है। कर्णेन्द्रिय से ग्राह्य शब्द पुद्गल नोबद्ध किन्तु पार्श्वस्पृष्ट हैं
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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