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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
-शिला या लकड़ी के बने हुए स्तम्भ पर, मंचं-चार लट्ठों को बाँधकर बनाया हुआ ऊँचा स्थान मंच या मचान कहलाता है, उस पर, मालंसि-छत पर या ऊपर की मंजिल पर, पासादंसि- महल पर, हम्मियतलंसि-प्रासाद की छत पर। पयलेज-फिसल जाएगा, पवडेज-गिर पड़ेगा, लूसेज-चोट लगेगी या टूट जाएगा, कोट्ठिग्गातो-कोष्ठिका– अन्न संग्रह रखने की मिट्टी-तृण-गोबर आदि की कोठी से, कोलेजाता-ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े-से भूमिघर से, उक्कज्जिय- शरीर ऊँचा करके झुककर तथा कुबड़े होकर, अवउज्जिय-नीचे झुककर, आहारिय-तिरछा-टेढ़ा होकर। उदभिन्न-दोषयुक्त आहार-निषेध
३६७. से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा असणं वा ४ मट्टिओलित्तं तहप्पगारं असणं वा ४ जाव लाभे संते णो पडिगाहेजा।
केवली बूया- आयाणमेयं । अस्संजए भिक्खुपडियाए मट्टिओलित्तं असणं वा उब्भिदमाणे पुढवीकार्य समारंभेज्जा,तह तेउ-वाउ-वणस्सति-तसकायं समारंभेजा. पणरवि ओलिंपमाणे पच्छाकम्मं करेजा। अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा ४२ जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा ४ अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेजा।
३६७. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि वहाँ अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए मुख वाले बर्तन में रखा हुआ है तो इस प्रकार का आहार प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
केवली भगवान् कहते हैं- यह कर्म आने का कारण है। क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु को आहार देने के लिए मिट्टी से लीपे आहार के बर्तन का मुँह उद्भेदन करता (खोलता) हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करेगा तथा अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय तक का समारम्भ करेगा। शेष आहार की सुरक्षा के लिए फिर बर्तन को लिप्त करके वह पश्चात्कर्म करेगा। इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित कर दिया है कि साधु-साध्वी की यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यही उपदेश है कि वह मिट्टी से लिप्त बर्तन को खोल कर दिये जाने वाले अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
विवेचन- उद्भिन्न दोष युक्त आहार ग्रहण न करें- इस सूत्र में उद्गम के १२ वें उद्भिन्न नामक दोष से युक्त आहार से ग्रहण करने का निषेध किया गया है। ३ यहाँ तो सिर्फ मिट्टी १. यहाँ 'जाव' शब्द सू० ३२४ में पठित 'अफासुयं अणेसणिजं मण्णमाणे' तक के पाठ का सूचक है। २. यहाँ पुव्वोवदिट्टा' से आगे'४' का अंक 'जंतहप्पगारं' तक समग्र पाठ का सूचक है,सूत्र ३६७ के अनुसार। ३. टीका पत्र ३४४ के आधार पर।