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प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र ३६६
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लाये गए) अशनादि चतुर्विध आहार के प्राप्त होने पर भी साधु उसे ग्रहण न करे।
३६६. आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि असंयत गृहस्थ साधु के लिए अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी आदि बड़ी कोठी में से या ऊपर से संकड़े और नीचे से चौड़े भूमिगृह में से नीचा होकर, कुबड़ा होकर या टेढ़ा होकर कर देना चाहता है, तो ऐसे अशनादि चतुर्विध आहार को मालाहृत (दोष से युक्त) जान कर प्राप्त होने पर भी वह साधु या साध्वी ग्रहण न करे।
विवेचन-मालाहृत दोषयुक्त आहार ग्रहण न करे- इन दोनों सूत्रों में मालाहृत दोष से युक्त आहार ग्रहण करने का निषेध है, साथ ही इस निषेध का कारण भी बताया है। मालाहत गवेषणा (उद्गम) का १३ वां दोष है। ऊपर, नीचे या तिरछी दिशा में जहाँ हाथ आसानी से न पहुँच सके, वहाँ पंजों पर खड़े होकर या सीढ़ी, तिपाई, चौकी आदि लगाकर साधु को आहार देना-'मालाहृत' दोष है। इसके मुख्यतया तीन प्रकार हैं- (१) उर्ध्व-मालाहृत (ऊपर से उतारा हुआ), (२) अधोमालाहृत (भूमिगृह, तलघर या तहखाने से निकालकर लाया हुआ),(३) तिर्यग्-मालाहृत-ऊँडे बर्तन या कोठे आदि में से झुक कर निकाला हुआ। इनमें से भी हर एक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन भेद हैं।
एड़ियाँ उठा कर हाथ फैलाते हुए छत में टंगे छींके आदि से कुछ निकाल कर लाना जघन्यऊर्ध्वमालाहृत है, सीढ़ी आदि लगाकर ऊपर की मंजिल से उतार कर लाई गई वस्तु उत्कृष्टउर्ध्वमालाहत है, सीढ़ी लगाकर मंच, खंभे या दीवार पर रखी हुई वस्तु उतार कर लाना मध्यमऊर्ध्वमालाहृत है।
मालाहृत दोषयुक्त आहार लेने से क्या-क्या हानियाँ हैं? इसे मूल पाठ में बता दिया है। अहिंसा महाव्रती साधु अपने निमित्त से दूसरे प्राणी की जरा-सी भी हानि, क्षति या हिंसा सहन नहीं कर सकता, इसी कारण इस प्रकार का आहार लेने का निषेध किया है।
'खंधंसि' आदि पदों के अर्थ खंधंसि-दीवार या भित्ति पर। स्कन्ध का अर्थ चूर्णिकार प्रकारक (छोटा प्राकार) करते हैं, अथवा दो प्रकार का स्कन्ध होता - तज्जात. अतज्जात । तज्जात स्कन्ध पहाड़ की गुफा में पत्थर का स्वत: बना हुआ आला या लटान होती है और अतज्जात कृत्रिम होती है, घरों में पत्थर का या ईंटों का आला या लटान बनाई जाती है, चीजें रखने के लिए। थंभंसि
अर्थात्-कालिज का अर्थ है-बांस का बनाया हुआ भूमिगृह, जो ऊपर से संकड़ा और नीचे से चौड़ा
हो, अग्नि से जब उस भूमि को जला देते हैं, तब उसमें चिरकाल तक गेहूँ आदि अन्न अधिक होते हैं। १. (क) पिण्डनियुक्ति गा० ३५७
(ख) दशवैकालिक ५/१/६७,६८,६९
(ग) दशवै० चूर्णि (अग०) पृ० ११७ २. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३४३-३४४