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________________ ७० आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ३६६.से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणेजा-असणं वा ४१ कोट्ठिगातो वा कोलेजातो वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उक्कुज्जिय अवउज्जिय ओहरिय आहट्ट दलएज्जा। तहप्पगारं असणं वा ४ मलोहडं ति णच्चा लाभे संते णो पडिगाहेजा।। ३६५. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहर गृहस्थ के यहाँ भीत पर, स्तम्भ पर, मंच पर, घर के अन्य ऊपरी भाग (आले) पर, महल पर, प्रासाद आदि की छत पर या अन्य उस प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के ऊँचे स्थान से उतार कर दिया जाता अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे। केवली भगवान् कहते हैं-यह कर्मबन्ध का उपादान- कारण है; क्योंकि असंयत गृहस्थ भिक्षु को आहर देने के उद्देश्य से (ऊँचे स्थान पर रखे हुए आहर को उतारने हेतु) चौकी, पट्टा, सीढ़ी (निःश्रेणी) या ऊखल आदि को लाकर ऊँचा करके उस पर चढ़ेगा। ऊपर चढ़ता हुआ वह गृहस्थ फिसल सकता है या गिर सकता है। वहाँ से फिसलते या गिरते हुए उसका हाथ, पैर, भुजा, छाती, पेट, सिर या शरीर का कोई भी अंग (इन्द्रिय समूह) टूट जाएगा, अथवा उसके गिरने से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन हो जाएगा, वे जीव नीचे (धूल में) दब जाएँगे, परस्पर चिपक कर कुचल जाएँगे, परस्पर टकरा जाएँगे, उन्हें पीड़ाजनक स्पर्श होगा, उन्हें संताप होगा, वे हैरान हो जाएँगे, वे त्रस्त हो जाएँगे, या एक (अपने) स्थान से दूसरे स्थान पर उनका संक्रमण हो जाएगा, अथवा वे जीवन से भी रहित हो जाएंगे। अत: इस प्रकार के मालाहृत (ऊँचे स्थान से उतार कर निशीथ चूर्णि (उ० १७) में इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है- 'पुरिसपमाणा हीणाहिया वा वि चिक्खलमयी कोट्ठिया भवति।कोलेजो नाम धंसमओ कडवल्ले सट्टई विभण्णति,अन्ने भणंति उट्टिया। उवरिहुत्तकरणं उक्विजित, उद्धाए तिरियहुत्तकरणं अवकुजिया वा,ओहरियत्ति पेढियमादिसु आरुभिउं ओतारेति । अहवा उच्चं कुज्जा उक्कजिया दंडायतं तद्वदगृह्णाति, कायं कुजं कृत्वा गृह्णाति, ओणमिय इत्यर्थः। अर्थात् पुरुषप्रमाण अथवा न्यूनाधिक ऊँची चिकनी कोष्टिका होती है। कोलेज-कहते हैं धंस जाने वाली चटाई का बाड़ जिसे सट्टा (टाटी) भी कहते हैं। अन्य आचार्य इसे उष्ट्रिका कहते हैं। ऊपर गर्दन करना उक्कज्जित है, ऊँचा होकर तिरछी गर्दन करना अवकुजिया है, ओहरिय कहते हैं-जहाँ ऊँची चौकी आदि पर चढ़कर उतारा जाता है। अथवा उक्कजिया का अर्थ है-ऊँचा उठकर दंडायमान होकर आहार ग्रहण करता (पकड़ता) है। शरीर को कुबड़ा करके-अर्थात् नीचे झुककर। २. इसके स्थान पर कुट्ठिगाओ', 'कोट्ठितातो', कोट्ठियाओ', 'कोट्ठिगाओ' आदि पाठान्तर मिलते हैं। चूर्णिकार ने 'कोट्ठिगा' पाठ ही माना है, जिसका अर्थ होता है-अन्न-संग्रह रखने की कोठी। ३. 'कोलेजातो' के स्थान पर चूर्णिकार 'कालेजाओ' पाठ मानकर व्याख्या करते हैं-'कालेजाओ वंसमओ उवरि संकुआ मूडिगहो-भूमीए वा खणित्तु भूमीघरगं उवरि संकडं हेट्ठा विच्छिण्णं अग्गिणा दहित्ता कज्जतिं, ताहिं सुचिरं पि गोहूमादी धणां अच्छति।' १.
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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