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________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक: सूत्र ३६८ के लेप से लिप्त बर्तन के मुख को खोलकर दिया गया आहार लेने में उद्भिन्नदोष बताया है, किन्तु दशवैकालिकसूत्र में बताया गया है कि जल - कुम्भ, चक्की, पीठ, शिलापुत्र ( लोढा), मिट्टी के लेप और लाख आदि श्लेष द्रव्यों से पिहित (ढके, लिपे और मूँदे हुए), बर्तन का श्रमण के लिए मुँह खोलकर आहार देती हुयी महिला को मुनि निषेध करे कि 'मैं इस प्रकार का आहार नहीं ले सकता।' १ उद्भिन्न से यहाँ मिट्टी का लेप ही नहीं, लाख, चपड़ा, कपड़ा, लोह, लकड़ी आदि द्रव्यों से बंद बर्तन का मुँह खोलने का भी निरूपण अभीष्ट है, अन्यथा सिर्फ मिट्टी के लेप से बन्द बर्तन के मुँह को खोलने में ही षट्काय के जीवों की विराधना कैसे संभव है? पिण्डनिर्युक्ति गाथा ३४८ में उद्भिन्न दो प्रकार का बताया गया है - (१) पिहित- उद्भिन्न और (२) कपाट - उद्भिन्न । चपड़ी, मिट्टी लाख आदि से बन्द बर्तन का मुँह खोलना पिहित - उद्भिन्न है और बंद किवाड़ का खोलना कपाटोद्भिन्न है । पिधान ( ढक्कन - लेप) सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का हो सकता है, उसे साधु के लिए खोला जाए और बन्द किया जाए तो वहाँ पश्चात्कर्म एवं आरम्भजन्य हिंसा की सम्भावना है। इसीलिए यहाँ पिहित - उद्भिन्न आहार ग्रहण का निषेध किया है। लोहा-चपड़ी आदि से बंद बर्तन को खोलने में अग्निकाय का समारम्भ स्पष्ट है, अग्नि प्रज्वलित करने के लिए हवा करनी पड़ती है, इसलिए वायुकायिक हिंसा भी सम्भव है, घी आदि का ढक्कन खोलते समय नीचे गिर जाता है तो पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय और छोटे-छोटे त्रसजीवों की विराधना भी सम्भव है। बर्तनों के कई छांनण (बंद) मुँह खोलते समय और बाद में भी पानी से भी गृहस्थ धोते हैं, इसलिए अकाय की भी विराधना होती है । लकड़ी का डाट बनाकर लगाने से वनस्पतिकायिक जीवों की भी विराधना सम्भव है । ३ षट्काय जीव- प्रतिष्ठित आहार ग्रहण निषेध ३६८. से भिक्खू वा २ जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा ४ पुढविक्कायपतिट्ठित । तहप्पारं असणं वा ४ अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा । अप्काय- अग्निकाय प्रतिष्टित आहार ग्रहण निषेध भिक्खू वा २ से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा ४ आउकायपतिट्ठितं तह चेव । एवं अगणिकायपतिट्ठितं लाभे संते णो पडिगाहेजा । १. दगावारएण पिहियं, नीसाए पीढएण वा । २. ३. ७३ लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेण व केणइ ॥ ४५ ॥ तं च उब्भिर्दिया देज्ज, समणट्ठाए व दावए । देंतियं पडिआइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ ४६ ॥ (क) आचा० टीका पत्र ३४४ के आधार पर आचा० टीका पत्र ३४४ के आधार पर - दसवै० अ० ५ उ० १ (ख) पिण्डनिर्युक्ति गाथा ३४८
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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