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प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र ३५३-३५६
३५६. साधु या साध्वी गृहस्थ के घर का द्वार भाग कांटों की शाखा से ढंका हुआ देखकर जिनका वह घर, उनसे पहले अवग्रह (अनुमति) मांगे बिना, उसे अपनी आँखों से देखे बिना और रजोहरणादि से प्रमार्जित किए बिना न खोले.न प्रवेश करे और न उसमें से (होकर ) निकले: किन्तु जिनका घर है, उनसे पहले अवग्रह (अनुमति) मांग कर अपनी आंखों से देखकर और रजोहरणादि से प्रमार्जित करके उसे खोले, उसमें प्रवेश करे और उसमें से निकले।
विवेचन-खतरे वाले मार्गों से आहारार्थ-गमन न करे-सूत्र ३५३ से सूत्र ३५६ तक शास्त्रकार ने उन मार्गों का उल्लेख किया है, जो संयम, आत्मा और शरीर को हानि पहुँचा सकते हैं। ऐसे चार प्रकार के मार्गों का नाम-निर्देश इस प्रकार किया है-(१) ऊँचा भू-भाग, खाई, कोट, बाहर के द्वार, आगल, अर्गलापाशक आदि रास्ते में पड़ते हों, (२) मतवाला सांड, भैंसा, दुष्ट मनुष्य, घोड़ा, हाथी, सिंह, बाघ, भेड़िया, चीता, रीछ, श्वापद (हिंसक पशु) - अष्टापद, गीदड़, वनबिलाव, कुत्ता, जंगली सुअर, लोमड़ी, सांप आदि खतरनाक प्राणी मार्ग में बैठे या खड़े हों (३) मार्ग के बीच में गड्ढा, दूंठ, कांटे, उतार वाली भूमि, फटी हुई जमीन, ऊबड़-खाबड़ जमीन, कीचड़ या दलदल पड़ता हो, तथा (४) गृहस्थ के घर का द्वार कांटों की बाड़ आदि से अवरुद्ध हो तो उस मार्ग या उस घर को छोड़ दे, दूसरा मार्ग साफ और ऐसे खतरों से रहित हो तो उस मार्ग से जाए; दूसरा घर, जो खुला हो, उसमें प्रवेश करे। दशवैकालिक सूत्र में भी इसी प्रकार का वर्णन किया गया
खतरों वाले मार्ग से जाने से क्या-क्या हानियाँ हैं, उनका स्पष्ट उल्लेख शास्त्रकार ने स्वयं किया है। जिस घर का द्वार कांटों से अवरुद्ध कर रखा हो, उसमें बिना अनुमति के, ऊपर से दीवार लांघ कर या कांटे हटाकर प्रवेश करने से चोरी समझी जाती है । गृहपति को उस साधु के प्रति घृणा
१. (क) ओवायं विसमं खाणं, विज्जलं परिवज्जए।
संकमेण न गच्छेज्जा, विजमाणे परक्कमे ॥४॥ पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे॥५॥ तम्हा तेण न गच्छेजा, संजए सुसमाहिए। सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे॥६॥ . साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं। संडिब्भं कलह जुद्धं, दूरओ परिवज्जए॥१२॥
- दशवै० अ०५/उ०१ (ख) यहाँ एक अपवाद भी बताया है - 'सह अनेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे' यदि अन्य मार्ग न हो तो इन विषम मार्गों से सावधानी व यतनापूर्वक जा सकता है, जिससे आत्म-विराधना और संयम-विराधना न हो। 'जति अण्णो मग्गो नत्थि ता तेण वि य पहेण गच्छेज्जा जहा आयसंजम विराहणा ण भवइ।' .
-जिनदास चूर्णि पृ० १६९