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________________ ५४ आचारांग सूत्र -द्वितीय श्रुतस्कन्ध या द्वेष हो सकता है, वह साधु पर चोरी का आरोप लगा सकता है, अथवा द्वार खुला रह जाने से कोई वस्तु नष्ट हो जाने से या किसी चीज की हानि हो जाने से साधु के प्रति शंका हो सकती है। अगर उस घर में जाना अनिवार्य हो तो उस घर के सदस्य की अनुमति लेकर, प्रतिलेखन - प्रमार्जन करके यतनापूर्वक प्रवेश-निर्गमन करना चाहिए। वृत्तिकार ने गाढ़ कारणों से प्रवेश करने की विधि बताई है - वैसे तो (उत्सर्ग मार्ग में) साधु को स्वत: बंद द्वार को खोलकर प्रवेश नहीं करना चाहिए; किन्तु यदि उस घर से ही रोगी, ग्लान एवं आचार्य आदि के योग्य पथ्य मिलना सम्भव हो, वैद्य भी वहाँ हो; दुर्लभ द्रव्य भी वहाँ से उपलभ्य हो, ऊनोदरी तप हो; इन और ऐसे कारणों के उपस्थित होने पर अवरुद्ध द्वार पर खड़े रहकर आवाज देनी चाहिए, तब भी कोई न आए तो स्वयं यथाविधि द्वार खोलकर प्रवेश करना चाहिए और भीतर जाकर घर वालों को सूचित कर देना चाहिए। 'वप्पाणि'आदि शब्दों के अर्थ - वप्पाणि- वप्र- ऊँचा भू भाग; ऐसा रास्ता जिसमें चढ़ाव ही चढ़ाव हों। अथवा ग्राम के निकटवर्ती खेतों की क्यारी भी वप्र कहलाती है। फलिहाणि - परिखा - खाईयाँ, प्राकार । तोरणानि-नगर का बहिर - (फाटक) या घर के बाहर का द्वार, परक्कमे-जिस पर चला जाए; (पैर से कदम रखा जाए) उसे प्रक्रम मार्ग कहते हैं। अणंतरहियाए - जिसमें चेतना अन्तर्निहित हो– लुप्त न हो- अर्थात् जो सचेतन हो वह पृथ्वी, ससणिद्धाए-सस्निग्ध पृथ्वी, ससरक्खाए-सचित्त मिट्टी, कोलावासंसिवा दारुएकोल-घुण; जिसमें कोल का आवास हो, ऐसी लकड़ी, जीवपतिट्टिते-जीवों से अधिष्ठित जीवयुक्त, आमज्जेज वा पमज्जेज वा- एक बार साफ करे, बार-बार साफ करे, संलिहेज वा णिल्लिहेज वा- अच्छी तरह एक बार घिसे, बार-बार घिसे, उव्वलेज वा उव्वटेज वाउबटन आदि की भाँति एक बार मले, बार-बार मले,आतावेज वा पयावेज वा-एक बार धूप में सुखाए, बार-बार धूप में सुखाए । गोणं वियालं- दुष्ट – मतवाला सांड, पहिपहे- ठीक सामने मार्ग पर स्थित, विगं- वक - भेडिया, दीवियं - चीता, अज्छं-रीछ भाल, तरच्छं- व्याघ्र विशेष, परिसरं- अष्टापद, कोलसुणयं-महाशूकर,कोकंतियं-लोमड़ी, चित्ताचेल्लडयं- एक जंगली जानवर, वियालं- सर्प, ओवाए- गड्डा, खाj-दूंठ या खूटा, घसी-उतराई की भूमि, भिलुगा- फटी हुयी काली जमीन, विसमे-ऊबड़ खाबड़ जमीन, विजले- कीचड़, दलदल, दुवारबाहं - द्वार भाग, कंटग-बोंदियाए- कांटे की झाड़ी से, पडिपिहितं- अवरुद्ध या ढका हुआ या स्थगित, उग्गहं - अवग्रह - अनुमति - आज्ञा, अवंगुणेज-खोले, उद्घाटन करे, अणुण्णविय- अनुमति लेकर।२ १. टीका पत्र ३३७-३३८ २. (क) टीका पत्र ३३७-३३८ (ख) आचारांग चूर्णि मूल पाठ टिप्पणी पृ० १२०
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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