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________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध सिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय णो अवंगुणेज्ज वा पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा। तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पमज्जिय ततो संजयामेव अवगुणेज वा पविसेज वा णिक्खमेज्ज वा । ५२ ३५३. वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ आहारार्थ जाते समय रास्ते के बीच में ऊँचे भूभाग या खेत की क्यारियाँ हों या खाइयाँ हों, अथवा बांस की टाटी हो, या कोट हो, बाहर के द्वार (बंद) हों, आगल हों, अर्गला - पाशक हों तो उन्हें जानकर दूसरा मार्ग हो तो संयमी साधु उसी मार्ग से जाए, उस सीधे मार्ग से न जाए; क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं यह कर्मबन्ध का मार्ग है। उस विषम मार्ग से जाते हुए भिक्षु (का पैर फिसल जाएगा या (शरीर ) डिग जाएगा, अथवा गिर जाएगा। फिसलने, डिगने या गिरने पर उस भिक्षु का शरीर मल, मूत्र, कफ, लींट, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र (वीर्य) और रक्त ने लिपट सकता है। अगर कभी ऐसा हो जाए तो वह भिक्षु मल-मूत्रादि से उपलिप्त शरीर को सचित्त पृथ्वी- - स्निग्ध पृथ्वी से, सचित्त चिकनी मिट्टी से, सचित्त शिलाओं से, सचित्त पत्थर या ढेले से, या घुन लगे हुए काष्ठ से, जीवयुक्त काष्ठ से एवं अण्डे या प्राणी या जालों आदि से युक्त काष्ठ आदि से अपने शरीर को न एक बार साफ करे और न अनेक बार घिस कर साफ करे । न एक बार रगड़े या घिसे और न बार-बार घिसे, उबटन आदि की तरह मले नहीं, न ही उबटन की भाँति लगाए। एक बार या अनेक बार धूप में सुखाए नहीं । वह भिक्षु पहले सचित्त-रज आदि से रहित तृण, पत्ता, काष्ठ, कंकर आदि की याचना करे । याचना से प्राप्त करके एकान्त स्थान में जाए। वहाँ अग्नि आदि के संयोग से जलकर जो भूमि अचित्तं हो गयी है, उस भूमि की या अन्यत्र उसी प्रकार की भूमि का प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके याचारपूर्वक संयमी साधु स्वयमेव अपने- . (मल-मूत्रादिलिप्त) शरीर को पोंछे, मले, घिसे यावत् धूप में एक बार व बार-बार सुखाए और शुद्ध करे 1 - ३५४. वह साधु या साध्वी जिस मार्ग से भिक्षा के लिए जा रहे हों, यदि वे यह जाने कि मार्ग में सामने मदोन्मत्त सांड है, या मतवाला भैंसा खड़ा है, इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य, घोड़ा, हाथी, सिंह, बाघ, भेड़िया, चीता, रीछ, व्याघ्र विशेष - (तरच्छ), अष्टापद, सियार बिल्ला ( वनबिलाव ), कुत्ता, महाशूकर - (जंगली सुअर), लोमड़ी, चित्ता, चिल्लडक नामक एक जंगली जीव विशेष और साँप आदि मार्ग में खड़े या बैठे हैं, ऐसी स्थिति में दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग से जाए, किन्तु उस सीधे (जीव-जन्तुओं वाले) मार्ग से न जाए। ३५५. साधु-साध्वी भिक्षा के लिए जा रहे हों, मार्ग में बीच में यदि गड्ढा हो, खूँटा हो या ढूँठ पड़ा हो, काँटे हों, उतराई की भूमि हो, फटी हुयी काली जमीन हो, ऊंची-नीची भूमि हो, या कीचड़ अथवा दलदल पड़ता हो, (ऐसी स्थिति में) दूसरा मार्ग हो तो संयमी साधु स्वयं उसी मार्ग से जाए, किन्तु जो (गड्ढे आदि वाला विषम, किन्तु ) सीधा मार्ग है, उससे न जाए।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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