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________________ सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र ८०२-८०४ ४२९ ८०३. जहा य बद्धं इह माणवेहि या, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिते। अहा तहा बंधविमोक्ख जे विदू, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चई॥१४५ ॥ ८०४. इमम्मि लोए परए य दोसु वी, ण विज्जती बंधणं जस्स किंचि वि। से हू णिरालंबणमप्पतिट्टितो, कलंकलीभावपवंच विमुच्चति॥१४६॥ ॥त्ति बेमि।। ८०२. तीर्थंकर, गणधर आदि ने कहा है-अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है। अत: इस संसार समुद्र के स्वरूप को (ज्ञ-परिज्ञा से) जानकर (प्रत्याख्यान-परिज्ञा से) उसका परित्याग कर दे। इस प्रकार का त्याग करनेवाला पण्डित मनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। ८०३. मनुष्यों ने इस संसार में मिथ्यात्व आदि के द्वारा जिसरूप से -प्रकृति-स्थिति आदि रूप से कर्म बांधे हैं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि द्वारा उन कर्मों का विमोक्ष होता है, यह भी बताया गया है। इस प्रकार जो विज्ञाता मुनि बन्ध और विमोक्ष का स्वरूप यथातथ्य रूप से जानता है, वह मुनि अवश्य ही संसार का या कर्मों का अंत करने वाला कहा गया है। ८०४. इस लोक, परलोक या दोनों लोकों में जिसका किंचिन्मात्र भी रागादि बन्धन नहीं है, तथा जो साधक निरालम्ब–इहलौकिक-पारलौकिक स्पृहाओं से रहित है, एवं जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं है, वह साधु निश्चय ही संसार में गर्भादि के पर्यटन के प्रपंच से विमुक्त हो जाता है। —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–प्रस्तुत तीनों सूत्रों द्वारा संसार को महासमुद्र की उपमा देकर कर्मास्रवरूप विशाल जलप्रवाह को रोक कर संसार का अन्त करने या कर्मों से विमुक्त होने का उपाय बताया गया है। वह क्रमश: इस प्रकार है-(१) संसार समुद्र को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से त्याग करे, (२) कर्मबन्ध कैसे हुआ है, इससे विमोक्ष कैसे हो सकता है, इस प्रकार बन्ध और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप जाने, (३) इहलौकिक-पारलौकिक रागादि बन्धन एवं स्पृहा से रहित, प्रतिबद्धता रहित हो। __ संसार महासमुद्र-सूत्रकृतांग प्र० श्रु० में भी 'जमाहु ओहं मलिलं अपारगं' पाठ है। इससे मालूम होता है संसार को महासमुद्र की उपमा बहुत यथार्थ है। चूर्णिकार ने सू० ८०२ की पंक्ति का एक अर्थ और सूचित किया है- भुजाओं से महासमुद्र की तरह संसार समुद्र पार करना दुस्तर १. माणवेहि या के बदले पाठान्तर है-माणवेहिं य, माणवेहिं जहा। २. जस्स के बदले पाठान्तर है-तस्स-उसका। ३. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४३१ के आधार पर।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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