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________________ ४३० आचारांग सूत्र -द्वितीय श्रुतस्कन्ध अथवा जो संसार को दो प्रकार की परिज्ञा से भलीभाँति जानता है एवं त्यागता है, अर्थात् जिस उपाय से संसार पार किया जा सकता है, उसे जान कर जो उस उपाय के अनुसार अनुष्ठान करता है, वह पण्डित मुनि है। वह ओघान्तर-संसार समुद्र के ओघ–प्रवाह या अंत करने वाला, या तैरने वाला कहलाता है। 'जहा य बद्धं ...' चूर्णिकार के अनुसार इसकी व्याख्या यों है-इस मनुष्य लोक में किससे बंधे हैं? कर्म से, कौन बंधे हैं? जीव। . जहा य ... विमोक्ख-जिस उपाय से कर्मबन्धनबद्ध जीवों का विमोक्ष हो, प्राणातिपातविरमण आदि व्रतों से तप-संयम से या अन्य सम्यग्दर्शनादि यथातथ्य उपाय से.फिर बन्धमोक्ष जान कर तदनुसार उपाय करके वह मुनि अन्तकृत् कहलाता है। "इमम्मि लोए ण विज्जती बंधणं" का भावार्थ—इस लोक, परलोक या उभयलोक में जिसका कर्मतः किंचित् भी बन्धन नहीं है, बाद में जब वह समस्त बन्धनों को काट देता है, तब वह बन्धन-मुक्त एवं निरालम्बन हो जाता है। आलम्बन का अर्थ शरीर है, निरालम्बन अर्थात् 'अशरीर' हो, तथा कोई भी कर्म उसमें प्रतिष्ठित नहीं रहता। इसके पश्चात् वह 'कलंकलीभाव प्रपंच' से सर्वथा विमुक्त हो जाता है। कलंकली कहते हैं—संकलित भवसंतति या आयुष्य कर्म की परम्परा को। प्रपंच तीन प्रकार का है-हीन, मध्यम, उत्तम-भृत्य-स्त्री- पिता-पुत्रत्व आदि रूप। अथवा कलंकलीभाव ही प्रपंच है। वह साधक कलंकली भाव प्रपंच से संसार में जन्म मरण की परम्परा से विमुक्त हो जाता है। ॥सोलहवाँ विमुक्ति अध्ययन समाप्त॥ ॥आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध (आचार चूला) समाप्त। १. (क) सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध अ. १२ गा. १२ (ख) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृष्ठ २९७ (ग) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४३१ २. आचारांग चूर्णि मू० पा० पा० पृ० २९८-कलंकली संकलिय भवसंततिः आउगकम्मसंतती वा ।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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