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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध गुणों से युक्त होकर कामगुण प्रत्ययिक कर्म से पूर्ण नहीं होता, अथवा उसमे मूछित नहीं होता। अथवा 'विजते' पाठान्तर मानने से अर्थ होता है- काम गुणों में विद्यमान नहीं रहता। जो जहाँ प्रवृत्त होता है, वह वहीं विद्यमान रहता है।
'विसुज्झती समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा'—सम्यक् प्रेरित चाँदी का मैल-किट्ट- अग्नि में तपाने से साफ हो जाता है। वैसे ही ऐसे भिक्षु द्वारा असंयमवश पुराकृत कर्ममल भी तपस्या की अग्नि से विशुद्ध (साफ) हो जाता है। " भुजंग-दृष्टान्त द्वारा बंधनमुक्ति की प्रेरणा ८०१. से हु परिण्णासमयम्मि वट्टती, णिराससे उवरय मेहुणे चरे।
भुजंगमे जुण्णतयं जहा चए, विमुच्चती से दुहसेज माहणे॥१४३॥ ८०१. जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा–कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसा ही जो मूलोत्तरगुणधारी माहन-भिक्षु परिज्ञा–परिज्ञान के समय सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, इहलोकपरलोक सम्बन्धी आशंसा से रहित है, मैथुनसेवन से उपरत (विरत) है तथा संयम में विचरण करता है, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में सर्प का दृष्टान्त देकर समझाया गया है कि सर्प जैसे अपनी पुरानी कैंचुली छोड़कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसे ही जो मुनि ज्ञान-सिद्धान्त-परायण, निरपेक्ष, मैथुनोपरत एवं संयमाचारी है, वह पापकर्म या पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली नरकादि रूप-दुःखशय्या से मुक्त हो जाता है।
'परिण्णा समयम्मि' आदि पदों के अर्थ 'परिण्णा समयम्मि' परिज्ञा में –परिज्ञान में या ज्ञान-समय में या ज्ञानोपदेश में । 'निराससे'--आशा/ प्रार्थना से रहित, इहलौकिकी या पारलौकिकी, प्रार्थना-अभिलाषा जो नहीं करता। उवरय मेहुणे'-मैथुन से सर्वथा विरत। चतुर्थ महाव्रती के अतिरिक्त उपलक्षण से यहाँ शेष महाव्रतधारी का ग्रहण होता है। [इस प्रकार विचरण करता हुआ सर्वकर्मों से विमुक्त हो जाता है।]दुहसेज विमुच्चती- दुःखशय्या से—दुःखमय नरकादि भवों से विमुक्त हो जाता है। अथवा दुःख-क्लेशमय संसार से मुक्त हो जाता है। महासमुद्र का दृष्टान्त : कर्म अन्त करने की प्रेरणा ८०२. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुदं व भुयाहिं दुत्तरं।
अहे व णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चती॥१४४॥ १. (क) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० २९५,२९६
(ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४३० (ग) अंतिम दो पद की तुलना करें-दशवै.८/६२ २. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४३० के आधार पर ३. (क) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृष्ठ० २९७ (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४३०
(ग) चार दु:ख शय्याओं का वर्णन देखें-ठाणं स्था. ४ सू. ६५०।