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________________ ४१८ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध कर्ण प्रदेश में आए हुए शब्द-श्रवण न करना शक्य नहीं है, किन्तु उनके सुनने पर उनमें जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, भिक्षु उसका परित्याग करे॥१३०॥ । अतः श्रोत से जीव प्रिय और अप्रिय सभी प्रकार के शब्दों को सुनकर उनमें आसक्त आरक्त, गृद्ध, मोहित, मूर्च्छित एवं अत्यासक्त न हो और न राग-द्वेष द्वारा अपने आत्मभाव को नष्ट करे। यह प्रथम भावना है। (२) इसके अनन्तर द्वितीय भावना इस प्रकार है -चक्षु से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रूपों को देखता है, किन्तु साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में न आसक्त हो, न आरक्त हो, न गृद्ध हो, न मोहित-मूछित हो, और न अत्यधिक आसक्त हो; न राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव को नष्ट करे। केवली भगवान् कहते हैं—जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों को देखकर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूर्च्छित और अत्यासक्त हो जाता है, या राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को विनष्ट करता है,शान्तिभंग कर देता है, तथा शान्तिरूप-केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। नेत्रों के विषय में बने हुए रूप को न देखना तो शक्य नहीं है, वे दिख ही जाते हैं, किन्तु उनके देखने पर जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करे अर्थात् उनमें राग-द्वेष का भाव उत्पन्न न होने दे।। १३१।। अतः नेत्रों से जीव मनोज्ञ रूपों का देखता है, किन्तु निर्ग्रन्थ भिक्षु उनमें आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूर्च्छित और अत्यासक्त न हो, न राग-द्वेष में फँसकर अपने आत्मभाव का विघात करे। यह दूसरी भावना है। (३) इसके बाद तीसरी भावना इस प्रकार हैं-नासिका से जीव प्रिय और अप्रिय गन्धों का सूंघता है, किन्तु भिक्षु मनोज्ञ या अमनोज्ञ गंध पाकर न आसक्त हो, न अनुरक्त, न गृद्ध, मोहितमूछित या अत्यासक्त हो, वह उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात न करे। केवली भगवान् कहते हैं—जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ या अमनोज्ञ गंध पाकर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूर्च्छित या अत्यासक्त हो जाता है, तथा राग-द्वेष से ग्रस्त होकर अपने आत्मभाव को खो बैठता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर डालता है, शान्ति भंग करता है, और शान्तिरूप केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा नहीं हो सकता है कि नासिका-प्रदेश के सान्निध्य में आए हुए गन्ध के परमाणु पुद्गल सूंघे न जाएँ, किन्तु उनको सूंघने पर उनमें जो राग-द्वेष समुत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करे॥१३२॥ अतः नासिका से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के गन्धों को सूंघता है, किन्तु प्रबुद्ध भिक्षु को उन पर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूछित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए, न एक पर राग और दूसरे पर द्वेष करके अपने आत्मभाव का विनाश करना चाहिए। यह तीसरी भावना
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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