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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७८९-७९१ ४१९ (४) इसके अनन्तर चौथी भावना यह है -जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को चाहिए कि वह मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में न आसक्त हो, न रागभावाविष्ट हो, न गृद्ध, मोहित-मूछित या अत्यासक्त हो, और न उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का घात करे। केवली भगवान् का कथन है कि जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूछित या अत्यासक्त हो जाता है या राग-द्वेष करके अपना आपा (आत्मभान ) खो बैठता है, वह शान्ति नष्ट कर देता है, शान्ति भंग करता है तथा शान्तिमय केवलि-भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि रस जिह्वाप्रदेश में आए और वह उसको चखे नहीं; किन्तु उन रसों के प्रति जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उसका परित्याग करे॥१३१॥ अत: जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को उनमें आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूछित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए, न उनके प्रति राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात करना चाहिए। यह चौथी भावना है। (५) इसके पश्चात् पंचम भावना यों हैं-स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों का संवेदन (अनुभव ) करता है, किन्त भिक्ष उन मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्शों में न आसक्त हो. न आरक्त हो. न गृद्ध हो, न मोहित-मूछित और अत्यासक्त हो, और न ही इष्टानिष्ट स्पर्शों में राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश करे। केवली भगवान् कहते हैं—जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त हो जाता है, या राग-द्वेषग्रस्त होकर आत्मभाव का विघात कर बैठता है, वह शान्ति को नष्ट कर डालता है, शान्ति भंग करता है, तथा स्वयं केवलीप्ररूपित शान्तिमय धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।। - स्पर्शेन्द्रिय-विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है, अतः भिक्षु उन मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर उनमें उत्पन्न होने वाले राग या द्वेष का त्याग करे, यही अभीष्ट है ॥ १३४॥ अतः स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक प्रकार के स्पर्शों का संवेदन करता है; किन्तु भिक्षु को उन पर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूछित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए, और न निष्ट स्पर्श के प्रतिराग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात करना चाहिए। यह है पांचवीं भावना। ७१९. इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाव्रत का काया से सम्यक् स्पर्श करने, उसका पालन करने, स्वीकृत महाव्रत को पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है। भगवन् ! यह है -परिग्रह-विरमणरूप पंचम महाव्रत!
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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