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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७८९-७९१ ४१७ देति, मणुण्णामणुण्णेहिं रसेहिं णो सजेजा णो रजेजा जाव णो विणिग्यातमावजेजा केवली बूया-निग्गंथे णं मणुण्णामणुण्णेहिं रसेहिं सजमाणे जाव विणिग्यायमावजमाणे संतिभेदा जाव भंसेज्जा। ण सक्का रसमणासातुं जीहाविसयमागतं। राग-दोसा उजे तत्थ ते भिक्खू परिवजए॥१३३॥ जीहातो जीवो मणुण्णामणुण्णाई रसाइं अस्सादेति त्ति चउत्था भावणा। [५] अहावरा पंचमा भावणा-फासातो जीवो मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसंवेदेति, मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं णो सजेजा, णो रज्जेजा, णो गिज्झज्जा, णो मुझेजा, णो अज्झो ववज्जेजा, णो विणिघातमावजेजा। केवली बूया—निग्गंथे णं मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिघातमावजमाणे संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेवलिपण्णत्तातो धम्मातो भंसेजा। ___ण सक्का ण संवेदेतुं फासं विसयमागतं। राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए॥१३४॥ .. फासातो जीवो मणुण्णामणुण्णाइं फासाइं पडिसंवेदेति त्ति पंचमा भावणा। ७९१. एत्ताव ताव महव्वते सम्म काएण फासिते पालिते तीरिते किट्टिते अवट्ठिते आणाए आराधिते यावि भवति। पंचमं भंते! महव्वयं परिग्गहातो वेरमणं। ७८९. इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पांचवें महाव्रत को स्वीकार करता हूँ। पंचम महाव्रत के संदर्भ में मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। आज से मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूलं, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नही करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊँगा, और न परिग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूँगा। इसके आगे का—'आत्मा से भूतकाल में परिगृहीत परिग्रह का व्युत्सर्ग करता हूँ', तक का सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। ७९०. उस पंचम महाव्रत की पांच भावनाएँ ये हैं (१) उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है— श्रोत (कान) से यह जीव मनोज्ञ तथा अनमोज्ञ शब्दों को सुनता है, परन्तु वह उसमें आसक्त न हो, रागभाव न करे, गृद्ध न हो, मोहित न हो, अत्यन्त आसक्ति न करे, न राग-द्वेष करे। केवली भगवान् कहते हैं—जो साधु मनोज्ञअमनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता है, रागभाव रखता है, गृद्ध हो जाता है, मोहित हो जाता है, अत्यधिक आसक्त हो जाता है, राग-द्वेष करता है, वह शान्तिरूप चारित्र का नाश करता है, शान्ति को भंग करता है, शान्तिरूप केवलिप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। १. किसी किसी प्रति में 'फासातो जीवो' पाठ नहीं है। कहीं पाठान्तर है-फासाओ जीवो, फासातो मणुण्णामणुण्णाई।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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