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________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध पडियाए ' एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूताई जीवाइं सत्ताइं समारम्भ समुद्दिस्स कीतं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसटुं अभिहडं आह१ चेतेति, तंतहप्पगारं, असणं वा ४ पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा बहिया णीहडं वा अणोहडं वा अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा आसेवितं वा अणसेवितं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। एवं बहवे साहम्मिया एगंसाहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणितव्वा। ३३२.[१] से भिक्खू वा २ जाव पविढे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा ४ बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स पाणाइं जावर समारब्भ आसेवियं वा अणासेवियं वाव अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे सते जाव णो पडिगाहेज्जा। [२] से भिक्खू वा २ जाव पविढे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा- असणं वा ४ बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स पाणाई ४ जाव आह? चेतेति, तं तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं अबहिया णीहडं अणत्तट्ठियं अपरिभुत्तं अणोसेवितं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेज्जा। __ अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतकडं बहिया णीहडं अत्तट्टियं परिभुत्तं आसेवितं फासुयं एसणिज्जं जाव पडिगाहेज्जा। __३३१. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत जीव और सत्त्वों का समारम्भ (उपमर्दन) करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लिया हुआ है तथा सामने (साधु के स्थान पर) लाया हुआ आहार दे रहा है, तो उस प्रकार का (कई दोषों युक्त), अशन,पान, खाद्य और स्वाद्य रूप आहार दाता से भिन्न पुरुष ने बनाया हो अथवा दाता (अपुरुषान्तर) ने बनवाया हो, घर से बाहर निकाला गया हो, या न निकाला गया हो, उस दाता ने स्वीकार किया हो या न किया हो, उसी दाता ने उस आहार में से बहुत-सा खाया हो या न खाया हो; अथवा थोड़ा-सा सेवन किया हो, या न किया हो; इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणिक समझकर प्राप्त होने पर भी वह ग्रहण न करे। इसी प्रकार बहुत- से साधर्मिक साधुओं के उद्देश्य से , एक साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से तथा बहत सी साधर्मिणी साध्वियों के उद्देश्य से बनाये हुए ....... आहार को ....... ग्रहण न करें; यों क्रमशः चार आलापक इसी भाँति कहने चाहिए। १. अस्संपडियाए के स्थान पर चूर्णि में अस्सिंपडियाए पाठान्तर है। २. यहाँ जाव शब्द के अन्तर्गत शेष समग्र पाठ सूत्र ३३१ के अनुसार समझें।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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