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________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ३३१-३३२ १७ ३३२. (१) वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह अशनादि आहार बहुत से श्रमणों, माहनों (ब्राह्मणों), अतिथियों, कृपणों (दरिद्रों), याचकों (भिखारियों) को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से प्राणी आदि जीवों का समारम्भ करके बनाया हुआ है। वह आसेवन किया गया हो या न किया गया हो, उस आहार को अप्रासुक अनेषणीय समझ कर मिलने पर ग्रहण न करे। (२) वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रवष्टि होने पर जाने कि यह चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमणों, माहनों (ब्राह्मण), अतिथियों, दरिद्रों और याचकों के उद्देश्य से प्राणादि आदि जीवों का समारम्भ करके श्रमणादि के निमित्त से बनाया गया है, खरीदा गया है, उधार लिया गया है, बलात् छीना गया है, दूसरे के स्वामित्व का आहार उसकी अनुमति के बिना लिया हुआ है, घर के साधु के स्थान पर (सामने) लाकर दे रहा है, उस प्रकार के (दोषयुक्त) आहार को जो स्वयं दाता द्वारा कृत (अपुरुषांतरकृत ) हो, बाहर निकाला हुआ न हो, दाता द्वारा अधिकृत न हो, दाता द्वारा उपभुक्त न हो, अनासेवित हो, उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ यदि वह इस प्रकार जाने कि वह आहार दूसरे पुरुष द्वारा कृत (पुरुषान्तरकृत) है, घर से बाहर निकाला गया है, अपने द्वारा अधिकृत है, दाता द्वारा उपभुक्त तथा आसेवित है तो ऐसे आहार को प्रासक और एषणीय समझ कर मिलने पर वह ग्रहण कर ले। विवेचन- औद्देशिक आदि दोषों से युक्त आहार की गवेषणा-साधु अहिंसा महाव्रत की तीन करण और तीन योग से प्रतिज्ञा लिए हुए है, इसलिए कोई उसके निमित्त से आहार बनाए या उनके तथा अन्य विभिन्न कोटि के भिक्षुओं या याचकों आदि के लिए बनाए या अन्य किसी प्रकार से उसको देने के लिए लाए तो वह आहार एकेन्द्रियादि प्राणियों के आरम्भ-समारम्भजनित हिंसा से निष्पन्न होने के कारण ग्राह्य नहीं हो सकता। अत: इस विषय में साधु को अपनी गवेषणात्मक दृष्टि से पहले ही छानबीन करनी चाहिए। इसी बात का प्रतिपादन सूत्र ३३१ में और सूत्र ३३२ में किया गया है। सूत्र ३३२ के अन्त में बताया गया है कि वही आहार प्रासुक और एषणीय होने के कारण साधु के लिए ग्राह्य है जो साधु द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से जांच-पड़ताल करने पर सिद्ध हो जाए कि वह दूसरों के लिए बना हुआ है, घर से बाहर निकाला गया है, दाता द्वारा अधिकृत है, परिभुक्त है तथा आसेवित है। अस्सं पडियाए- का संस्कृत रूपान्तर 'अस्व-प्रतिज्ञया' मानकर उसका अर्थ वृत्तिकार इस प्रकार करते हैं - 'न विद्यते स्वं द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो निर्ग्रन्थः तत्प्रतिज्ञया' अर्थात् - जिसके पास स्व-धन या कोई भी द्रव्य नहीं है, वह अकिंचन , या स्व-स्वामित्व रहित अपरिग्रहीनिर्ग्रन्थ - 'अ-स्व' है, उसकी प्रतिज्ञा से- यानी उसको लक्ष्य में रखकर या उनको मैं आहार दूंगा, इस प्रकार के अभिप्राय से .. । १. आचा० टीका पत्रांक ३२५ के आधार पर।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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