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________________ १५ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ३२७ - ३३० दोषों की विशुद्धि न करने वाले पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद आदि साधु हैं । पारिहारिक का अर्थ है- आहार के दोषों का परिहार करने वाला शुद्ध आचार वाला साधु । १ भिक्षु और पारिहारिक साधु का सम्पर्क अन्यतीर्थिक, परपिण्डोपजीवी गृहस्थ एवं अपारिहारिक के साथ पाँच माध्यमों से होता है— (१) भिक्षा के लिये साथ-साथ प्रवेश निर्गमन से । (२) स्थण्डिल - भूमि में साथ-साथ प्रवेश - निष्क्रमण से । (३) स्वाध्याय - भूमि में साथ-साथ प्रवेश - निगर्मन से। (४) ग्रामानुग्राम साथ-साथ विचरण करने से । (५) आहार के देने दिलाने से । २ = अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी गृहस्थ के यहाँ प्रवेश-निगर्मन में दोष यह है कि वे आगेपीछे चलेंगे तो ईर्याशोधन नहीं करेंगे, उसका दोष तथा प्रवचन लघुता या उनके द्वारा जाति आदि का अभिमान -प्रदर्शन। ये पीछे-पीछे पहुँचेंगे तो अभद्रवृत्ति के दाता को प्रद्वेष जागेगा, दाता आहार का विभाग करके देगा । उससे ऊनोदरी तप या दुर्भिक्ष आदि में थोड़े-से प्राप्त आहार से प्राणधारण करना दुर्लभ होगा। अपारिहारिक के साथ भिक्षा के लिए प्रवेश करने से अनेषणीय भिक्षा ग्रहण करनी होगी या उसका अनुमोदन हो जायेगा । वैसी भिक्षा ग्रहण करने पर अन्यत्र आहार की दुर्लभता आदि परिस्थिति आ सकती है। शौचनिवृत्ति के लिए स्थण्डिलभूमि में साथ-साथ जाने पर प्रासुक जल आदि से गुह्यभाग स्वच्छ करने-न-करने आदि का विवाद खड़ा होगा । स्वाध्याय - भूमि में साथ-साथ जाने पर सैद्धान्तिक विवाद, निरर्थक स्व-प्रशंसा, असहिष्णुता के कारण कलह आदि दोषों की संभावना है। ग्रामानुग्राम सहगमन में भी लघुशंका- बड़ीशंका से निवृत्त होने में संकोच होगा। हाजत रोकने से आत्म-विराधना रोगादि की सम्भावना है। यदि मल-मूत्र का उत्सर्ग करना है तो प्रासुक - अप्रासुक जल ग्रहण करने से संयम - विराधना की संभावना रहती है। इसी प्रकार अन्यतीर्थिक आदि को अपने आहार में से देने से दाता को अप्रतीति होगी कि ये तो आहार को ले जाकर बाँटते हैं । उनको दिलाने से गृहस्थ के मन में अश्रद्धा पैदा होगी, उन अन्यतीर्थिक आदि की असंयमप्रवृत्ति आदि दोषों का सहभागी हो सकता है । ३ ये सब सम्पर्कजनित दोष हैं, जो आगे चलकर सुविहित साधु के सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चरित्र की नींव हिला सकते हैं । औद्देशिकादि दोष-रहित आहार की एषणा ३३१. से भिक्खू वा २ जाव पविट्ठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा ४ अस्सं १. २. ३. आचा० टीका पत्रांक ३२३- ३२४ के आधार पर । आचा० टीका पत्रांक ३२३, ३२४, ३२५ के आधार पर । आचा० टीका पत्रांक ३२३ - ३२५ ।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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