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पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७३६-७३९
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७३६. उस काल और उस समय में त्रिशला क्षत्रियाणी ने अन्यदा किसी समय नौ मास साढ़े सात अहोरात्र प्रायः पूर्ण व्यतीत होने पर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के द्वितीय पक्ष में अर्थात् चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर सुखपूर्वक (श्रमण भगवान् महावीर को) जन्म दिया।
७३७. जिस रात्रि को त्रिशला क्षत्रियाणी ने सुखपूर्वक (श्रमण भगवान् महावीर को ) जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों के स्वर्ग से आने और मेरूपर्वत पर जाने–यों ऊपर-नीचे आवागमन से एक महान् दिव्य देवोद्योत हो गया, देवों के एकत्र होने से लोक में एक हलचल मच गई, देवों के परस्पर हास परिहास (कहकहों) के कारण सर्वत्र कलकलनाद व्याप्त हो गया।
७३८. जिस रात्रि त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्वस्थ श्रमण भगवान् महावीर को सुखपूर्वक जन्म दिया, उस रात्रि में बहुत से देवों और देवियों ने एक बड़ी भारी अमृतवर्षा, सुगन्धित पदार्थों की वृष्टि और सुवासित चूर्ण, पुष्प, चांदी और सोने की वृष्टि की।
७३९. जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने आरोग्यसम्पन्न श्रमण भगवान महावीर को सुखपूर्वक जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों ने श्रमण भगवान् महावीर का कौतुकमंगल, शुचिकर्म तथा तीर्थंकराभिषेक किया।
विवेचन- भगवान् महावीर का जन्म- सूत्र ७३६ से ७३९ तक चार सूत्रों में भगवान् महावीर का जन्म, जन्म के प्रभाव से सर्वत्र महाप्रकाश एवं आनन्द का संचार देवों द्वारा विविध पदार्थों की वष्टि देवों द्वारा जन्माभिषेक आदि वर्णन है।
भगवान् महावीर के जन्म के समय केवल क्षत्रियकुण्डपुर ही नहीं, परन्तु क्षण भर के लिए सारे जगत् में प्रकाश फैल गया। बाद में उनके उपदेश और ज्ञान से केवल मनुष्य लोक ही नहीं, तीनों लोक प्रकाशमान हो गए हैं। स्थनांगसूत्र में बताया गया है कि तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञानोत्पत्ति के समय में तीनों लोकों में अपूर्व उद्योत होता है। १ वस्तुत: तीर्थंकर भगवान् का इस भूमण्डल पर जन्म धारण करना धर्म, ज्ञान और अध्यात्म के महाप्रकाश का साक्षात् अवतरण
सारा ही संसार, यहाँ तक कि नारकीय जीव भी क्षण भर के लिए अनिर्वचनीय आनन्द व उल्लास का अनुभव करते हैं।
जन्म से पूर्व त्रिशला महारानी के स्वप्नों का तथा गर्भ परिपालन गर्भ में संचालन बंद हो जाने से आर्तध्यान, भ० महावीर द्वारा मातृभक्ति सूचक प्रतिज्ञा, जृम्भक देवों द्वारा निधानों का सिद्धार्थ १. (क) 'लोगस्स उज्जयोगरे धम्मतित्थयरे जिणे।'
-चतुर्विंशतिस्तव पाठ आवश्यक सूत्र (ख) 'तिहिं ठाणेहिं लोगुज्जोए सिया, तंजहा–अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेसु पव्वयमाणेसु, अरहंताणं णाणूप्पायमहिमासु।'
--स्थानांग स्था.३