SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्दश अध्ययन : प्राथमिक (जिनकल्पी, जिन) एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधुओं के उद्देश्य से किया गया है । वास्तव में, गच्छनिर्गत साधुओं का जीवन स्वभावत: निष्प्रतिकर्म एवं अन्योन्यक्रिया-निषेध में अभ्यस्त होता है। ३५७ १. गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधुओं के लिए यतनापूर्वक अन्योन्यक्रिया कारणवश उपादेय हो सकती है। इस अध्ययन में, तेरहवें अध्ययन में वर्णित पाद-काय-व्रण आदि के परिकर्म से सम्बन्धित परक्रिया निषेध की तरह उन सब परिकर्मों से सम्बन्धित क्रियाओं का निषेध किया गया है। (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१७, आचारांग नियुक्ति गा० ३२६ (ख) चूर्णिकार के अनुसार - 'अण्णमण्णकिरिया दो सहिता अण्णमणस्स पगरंति, ण कप्पति एवं चेव एवं पुण पडिमा पडिवण्णाणं जिणाणं च ण कप्पति । थेराणं किं पि कप्पेज्ज कारणजाए। बुद्ध्या विभासियव्वं ।' - आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २५८ २. आचारांग मूलपाठ वृत्ति पत्रांक ४१७
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy