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________________ ३५६ 00 १. २. ६. अन्योन्यक्रिया - सप्तक : चतुर्दश अध्ययन प्राथमिक आचारांग सूत्र (द्वि० श्रु० ) के चौदहवें अध्ययन का नाम 'अन्योन्यक्रिया - सप्तक' है। साधु जीवन में उत्कृष्टता और तेजस्विता, स्वावलम्बिता एवं स्वाश्रयिता लाने के लिए 'सहाय- प्रत्याख्यान' और 'संभोग - प्रत्याख्यान' अत्यन्त आवश्यक है । सहाय-प्रत्याख्यान से अल्पशब्द', अल्पकलह, अल्पप्रपंच, अल्पकषाय, अल्पाहंकार होकर साधक संयम और संवर से बहुल बन जाता है। संभोग - प्रत्याख्यान से साधक आलम्बनों का त्याग करके निरावलम्बी होकर मन-वचनकाय को आत्मस्थित कर लेता है, स्वयं के लाभ में संतुष्ट रहता है, पर द्वारा होने वाले लाभ की इच्छा नहीं करता, न पर-लाभ को ताकता है, उसके लिए न प्रार्थना करता है, न इसकी अभिलाषा करता है, वह द्वितीय सुखशय्या को प्राप्त कर लेता है। इस दृष्टि से साधु को अपने स्वधर्मी साधु से तथा साध्वी को अपनी साधर्मिणी साध्वी से किसी प्रकार शरीर एवं शरीर के अवयव सम्बन्धी परिचर्या लेने का मन-वचन-काय से निषेध किया गया है । साधुओं या साध्वियों की परस्पर एक दूसरे से (त्रयोदश अध्ययन में वर्णित पाद-कायव्रणादि परिकर्म सम्बन्धी परक्रिया) परिचर्या लेना, अन्योन्यक्रिया कहलाती है। इस प्रकार की अन्योन्यक्रिया का इस अध्ययन में निषेध होने के कारण इसका नाम अन्योन्यक्रिया रखा गया है। अन्योन्यक्रिया की वृत्ति साधक में जितनी अधिक होगी, उतना ही वह परावलम्बी, पराश्रयी, परमुखापेक्षी और दीन हीन बनता जाएगा। इसलिए इस अध्ययन की योजना की गई है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के मत से इस अध्ययन में निरूपित 'अन्योन्यक्रिया' का निषेध आगम शैली में आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध - 'अल्प' शब्द यहाँ अभाव वाचक है। उत्तराध्ययन अ० २९ बोल ४०, ३३ ३. उत्त० २९, बोल ३४ ४. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१७ ५. (क) आचा० चूर्णि पत्रांक ४१७ (ख) आचा० चूर्णि मू० पा०टि० पृ०२५० - २५१ उत्तरा० अ० २९ बोल ३४ के आधार पर
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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