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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ७२३. से से परो दीहाई वालाई दीहाई रोमाई दीहाइंभमुहाई दीहाइं कक्खरोमाइं दीहाइं वत्थिरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
७२४. से से परो सीसातो लिक्खं वा जूयं वाणीहरेज वा विसोहेज वा, णोतं सातिए णोतं णियमे।
७२१. यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर से पसीना, या मैल से युक्त पसीने को मिटाए (पोंछे) या साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न ही वचन एवं काया से कराए।
७२२. यदि कोई गृहस्थ, साधु के आँख का मैल, कान का मैल, दाँत का मैल या नख का मैल निकाले या उसे साफ करे, तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
७२३. यदि कोई गृहस्थ, साधु के सिर के लंबे केशों, लंबे रोमों, भौहों एवं कांख के लंबे रोमों, लंबे गुह्य रोमों को काटे अथवा संवारे, तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
७२४. यदि कोई गृहस्थ, साधु के सिर से जूं या लीख निकाले या सिर साफ करे, तो साधु मन से भी न चाहे और और न ही वचन और काया से ऐसा कराए।
विवेचन - सू० ७२१ से ७२४ तक चतुःसूत्री में उस परक्रिया का निषेध किया गया है, जो शरीर के विविध अंगों के परिकर्म से सम्बन्धित है। वस्तुतः इस प्रकार की शारीरिक परिचर्या गृहस्थ से लेने में पूर्वोक्त अनेक दोषों की सम्भावना है। इन सभी सूत्रों से मिलते-जुलते सूत्र निशीथसूत्र में भी हैं। ३
_ 'सेयं' आदि पदों के अर्थ सेओ- स्वेद, पसीना। जल्लो— शरीर का मैल। कप्पेजकाटे। संठवेज - संवारे।४
१. निशीथचूर्णि उ. १३ में बताया गया है -'जे भिक्खू दीहाओ अप्पणो णहा इत्यादि जाव अप्पणो दीहेकेसे
कप्पई, इत्यादि तेरस सुत्ता उच्चारेयव्वा।'-जे भिक्खू .... से लेकर अप्पणो दीहेकेसे कप्पई १३ सूत्रों का उच्चारण करना चाहिए। णीहरति आदि का अर्थ निशीथचूर्णि में है -'णीहरतिणाम णिग्गलेति। अवससेसावयफेडणं -विसोहणं
सभावत्थ सोणियं भण्णति।' ३. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१६ के आधार पर।
(ख) निशीथसूत्र उ.३ चूर्णि पृ. २१९-२२१ -'जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णहसिहाओ कप्पेति संठवेति वा ...., दीहाइं जंघरोमाई, दीहाई वत्थिरोमाइं .... दीहाई कक्खाणरोमाई .... मंसूई कप्पेति वा संठवेति वा .... दंते आमज्जति वा पमज्जति वा ..... उत्तरोठ्ठरोमाई ..... दीहरोमाइं .... भमुहारोमाइं .... दोहे केसे कप्पेइ वा संठवेइ वा ....। जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि सेयं वा, जल्लं वा फंकं वा मलं वा उव्वट्टेति वा पव्वट्टेति वा
.... अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णखमलं वा णीहरति वा विसोधेति वा।' ४. आचारांगचूर्णि मू.पा.टि. पृष्ठ २२५ -कप्पेति-छिंदेति, संठवेति-समारेति, सेओ-प्रस्वेदो, जल्लो
- कमढो; मल थिग्गलं । तथा निशीथ भाष्य गा. १५२१ ।