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त्रयोदश अध्ययन : सूत्र ७२५-७२८
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परिचर्यारूप परक्रिया-निषेध
७२५. से से परो अंकंसि वा पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता पायाइं आमज्जेज वा पमज्जेज वा, [णो तं सातिए णो तं णियमे।] एवं हेट्ठिमो गमो पादादि भाणितव्वो।
७२६. से से परो अंकंसि वा पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता हारं वा अड्डहारं वा उरत्थं वा गेवेयं वा मउडं वा पालंबं वा सुवण्णसुत्तं वा आविंधेज ' वा पिणिधेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे।
७२७. से से परो आरामंसि वा उज्जाणंसि वा णीहरित्ता वा विसोहित्ता २ वा पायाई आमजेज वा, पमज्जेज वा णो तं सातिएणो तं णियमे एवं णेयव्वा अण्णमण्णकिरिया वि।
७२८.से से परो सुद्धेणं वा वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे,से से परो असुद्धेणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे, से से परो गिलाणस्स सचित्ताईं कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि ३ वा हरियाणि वा खणित्तु वा कड्डेत्तु वा कड्डावेत्तु वा तेइच्छं आउट्टेजा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
कडुवेयणा कट्ट वेयणा पाण-भूत-जीव-मत्ता वेदणं ५ वेदेति।
७२५. यदि कोई गृहस्थ, साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवा कर उसके चरणों को वस्त्रादि से एक बार या बार-बार भलीभाँति पोंछकर साफ करे; साधु इसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। इसके बाद चरणों से सम्बन्धित नीचे के पूर्वोक्त ९ सूत्रों में जो पाठ कहा गया है, वह सब पाठ यहाँ भी कहना चाहिए।
७२६. यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवा कर उसको हार (अठारह लड़ीवाला), अर्द्धहार (९ लड़ी का), वक्षस्थल पर पहनने योग्य आभूषण, गले का आभूषण, मुकुट, लम्बी माला, सुवर्णसूत्र बांधे या पहनाए तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से उससे ऐसा कराए।
७२७. यदि कोई गृहस्थ साधु को आराम या उद्यान में ले जाकर या प्रवेश कराकर उसके चरणों को एक बार पोंछे, बार-बार अच्छी तरह पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न वचन व काया से कराए।
इसी प्रकार साधुओं की अन्योन्यक्रिया-पारस्परिक क्रियाओं के विषय में भी ये सब सूत्र पाठ समझ लेने चाहिए।
७२८. यदि कोई गृहस्थ, शुद्ध वाग्बल (मंत्रबल) से साधु की चिकित्सा करना चाहे, अथवा १. 'आविंधेज' के बदले पाठान्तर हैं - आविंहेज्ज, आविधेज्ज, आवंधेज, हाविहेज्ज। २. 'विसोहित्ता' के बदले 'परिभेत्ता वा पायाई' पाठान्तर हैं। ३. 'तयाणि' के बदले पाठान्तर है - 'बीयाणि'। ४. 'आउट्टेज्जा' के बदले पाठान्तर है- 'आउट्टावेज्ज'। ५. 'वेदणं वेदेति' आदि पाठ के आगे चूर्णिकार ने 'छटुं सत्तिक्कयं समाप्तमिति' पाठ दिया है, इससे प्रतीत होता
है कि सूत्र ७२९ का 'एयं खलु तस्स, ...' आदि पाठ चूर्णिकार के मतानुसार नहीं है।