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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ग्रन्थी अर्श-भगंदर आदि पर परक्रिया-निषेध
७१५. से से परो कायंसि गंडं वा अरइयं वा पुलयं वा भगंदलं वा आमजेज वा, पमज्जेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
७१६. से से परो कार्यसि गंडं वा अरइयं वा पुलयं वा भगंदलं वा संबाहेज वा पलिमद्देज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
७१७. सेसे परो कार्यसि गंडं वा जांव भगंदलं वा तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खेज वा भिलिंगेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
__ ७१८. से से परो कार्यसि गंडं वा जाव भगंदलं वा लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोढेज वा उव्वलेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
७१९. से से परो कायंसि गंडं वा जाव भगंदलं वा सोतोदगवियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा उच्छोलेज वा पधोलेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
७२०.से ५ से परो कायंसि गंडं वा अरइयं वा जा भगंदलं वा अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदेज वा, विच्छिदेज वा अन्नतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूयं वा सोणियं वाणीहरेज वा विसोहेज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे।
७१५. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को एक बार या बार-बार पपोल कर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और शरीर से कराए।
७१६. यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को दबाए या परिमर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
७१७. यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर पर तेल, घी, वसा चुपड़े, मले या मालिश करे तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
७१८. यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर पर लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण का थोड़ा या अधिक विलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन
और काया से कराए। १. 'अरइयं' के बदले 'अरइंग' 'अरइगं दलं' पाठान्तर मिलते हैं। २. 'पुलयं' के बदले 'पुलइयं' पाठान्तर है। ३. 'उल्लोढेज' के बदले 'उल्लोडेज' पाठान्तर मिलता है।
'आलेप' के तीन अर्थ निशीथचूर्णि पृ. २१५-२१७ पर मिलते हैं। आलेवो त्रिविधो-वेदणपसमकारी, पाककारी, पुतादिणीहरणकारी। अर्थात् —आलेप तीन प्रकार का है- १. वेदना शान्त करने वाला
२. फोड़ा पकाने वाला ३. मवाद निकालने वाला। ५. 'से से परो' के बदले पाठान्तर हैं-'से सिया परो', 'से सिते परो'। ६. यहाँ जाव' शब्द से 'अरइयं' से 'भगंदलं' तक का पाठ सू०७१५ के अनुसार समझें।