SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रयोदश अध्ययन : सूत्र ७१३-७२० ३४९ ७१३. से से परो कार्यसि वणं अण्णतरेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा, तं सातिएण तं नियमे । ७१४. से से परो (कायंसि वणं) अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूयं वा सोणियं वा णीहरेज्ज वा, जो तं सातिए णो तं नियमे । ७०८. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण (घाव) को एक बार पोंछे या बार-बार अच्छी तरह से पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से उसे कराए। ७०९. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को दबाए या अच्छी तरह मर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए । ७१०. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए व्रण के ऊपर तेल, घी या वसा चुपड़े मसले, लगाए या मर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न कराए । ७११. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर पर हुए व्रण के ऊपर लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण आदि विलेपन द्रव्यों का आलेपन - विलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। ७१२. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को प्रासुक शीतल या उष्ण जल एक बार या बार-बार धोए तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। ७१३. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी प्रकार के शस्त्र से थोड़ासा छेदन करे या विशेष रूप से छेदन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही उसे वचन और काया से कराए । ७१४. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा या विशेष रूप से छेदन करके, उसमें से मवाद या रक्त निकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए। ― विवेचन - सूत्र ७०८ से ७१४ तक सात सूत्रों में गृहस्थ द्वारा साधु को शरीर पर हुए घाव के परिकर्म कराने का मन-वचन-काया से निषेध किया गया है। इस सप्तसूत्री में पहले के ५ सूत्र चरण और शरीरगत परिकर्म निषेधक सूत्रों की तरह हैं, अन्तिम दो सूत्रों में गृहस्थ से शस्त्र द्वारा व्रणच्छेदन कराने तथा व्रणच्छेद करके उसका रक्त एवं मवाद निकाल कर उसे साफ कराने का निषेध है। इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि गृहस्थ द्वारा चिकित्सा कराने का निषेध अहिंसा व अपरिग्रह की साधना को अखंड रखने की दृष्टि से ही किया गया है। इस चिकित्सा - निषेध का मूल आशय प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्र ९४ में दृष्टव्य है. 1
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy