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________________ एकादश अध्ययन : सूत्र ६६९-६७२ ३२९ सद्दाणि वा वंससदाणि वा खरमुहिसदाणि वा पिरिपिरियसदाणि वा अण्णयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं ३ झुसिराइंकण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेजा गमणाए। ६६९. संयमशील साधु या साध्वी मृदंगशब्द, नंदीशब्द या झलरी (झालर या छैने) के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य वितत शब्दों को कानों से सुनने के उद्देश्य से कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। ६७०. साधु या साध्वी कई शब्दों को सुनते हैं, अर्थात् अनायास कानों में पड़ जाते हैं, जैसे कि वीणा के शब्द, विपंची के शब्द, बद्धीसक के शब्द, तूनक के शब्द या ढोल के शब्द, तुम्बवीणा के शब्द, ढंकुण (वाद्य विशेष) के शब्द, या इसी प्रकार के विविध तत-शब्द, किन्तु उन्हें कानों से सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में विचार न करे। ६७१. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि ताल के शब्द, कंसताल के शब्द, लत्तिका (कांसी) के शब्द, गोधिका (भांड लोगों द्वारा काँख और हाथ में रख कर बजाए जाने वाले वाद्य) के शब्द या बांस की छडी से बजने वाले शब्द. इसी प्रकार के अन्य अनेक तरह के तालशब्दों को कानों से सुनने की दृष्टि से किसी स्थान में जाने का मन में संकल्प न करे। ६७२. साधु-साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि शंख के शब्द, वेणु के शब्द, बांस के शब्द, खरमुही के शब्द, बांस आदि की नली के शब्द या इसी प्रकार के अन्य नाना शुषिर (छिद्रगत) शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के प्रयोजन से किसी स्थान में जाने का संकल्प न करे। विवेचन-विविध वाद्य-स्वर श्रवणार्थ उत्सुकता निषेध- इन ४ सूत्रों (सू.६६९ से ६७२ तक) में विविध प्रकार के वाद्यों के स्वर सुनने के लिए लालायित होने का स्पष्ट निषेध है। इस निषेध के पीछे कारण ये हैं- (१) साधु वाद्यश्रवण में मस्त हो कर अपनी साधना को भूल जाएगा, (२) वाद्य-श्रवण रसिक साधु अहर्निश संगीत और वाद्य की महफिलें ढूँढ़ेगा, (३) वाद्य१. खरमुही का अर्थ निशीथचूर्णि में किया गया है— 'खरमुही काहला, तस्स मुहत्थाणे खरमुहाकारं कठ्ठमयं मुहं कज्जति।'-खरमुखी उसे कहते हैं, जिसके मुख के स्थान में गर्दभमुखाकार काष्ठमय मुख बनाया जाता है। २. 'परिपिरिया' का अर्थ निशीथचूर्णि में किया गया है.-'परिपिरिया तततोण सलागातो सुसिराओ जमलाओ संघाडिज्जति मुहमूले एगमुहा सा संखागारेण वाइज्जमाणी जुगवं तिण्णि सद्दे परिपिरिती करेति।'-परिपरिया विस्तृत तृणशलाका से पोला पोला समश्रेणि में इकट्ठी की जाती है। मुख के मूल में एकमुखी करके उसे शंखाकृति रूप में बजाई जाने पर एक साथ तीन शब्द परिपिरिया करती है। -निशीथ चूर्णि उ०१७ पृ० २०१ इसके बदले पाठान्तर है-पिरिपिरिसदाणिं। ३. सद्दाई के आगे 'झूसिराइं' पाठ किसी-किसी प्रति में नहीं है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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