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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
श्रवण की लालसा से राग और मोह, तथा श्रवणेन्द्रिय विषयासक्ति और तत्पश्चात् कर्मबन्ध होगा, (४) वाद्य-श्रवण की उत्कण्ठा के कारण नाना वादकों की चाटुकारी करेगा। इसलिए वाद्य शब्द अनायास ही कान में पड़े, यह बात दूसरी है, किन्तु चलाकर श्रवण करने के लिए उत्कण्ठित हो, यह साधु के लिए उचित नहीं।
प्रस्तुत चतुःसूत्री में मुख्यतया चार कोटि के वाद्य-श्रवण की उत्कण्ठा का निषेध है- (१) वितत शब्द, (२) तत शब्द, (३) ताल शब्द और (४) शुषिर शब्द । वाद्य चार प्रकार के होने से तजन्य शब्दों के भी चार प्रकार हो जाते हैं । इन चारों के लक्षण इस प्रकार हैं-(१)वितत- तार रहित बाजों से होने वाला शब्द, जैसे मृदंग, नंदी और झालर आदि के स्वर । (२) तत- तार वाले बाजे- वीणा, सारंगी, तुनतुना, तानपूरा, तम्बूरा आदि से होने वाले शब्द। (३) ताल-ताली बजने से होने वाला या कांसी, झाँझ, ताल आदि के शब्द। (४) शुषिर- पोल या छिद्र में से निकलने वाले बांसुरी, तुरही, खरमुही, बिगुल आदि के शब्द।
स्थानांगसूत्र में शब्द के भेद-प्रभेद - जीव के वाक्प्रयत्न से होने वाला— भाषा शब्द तथा वाक्-प्रयत्न से भिन्न शब्द। इसके भी दो भेद किये हैं- अक्षर-सम्बद्ध, नो-अक्षर-सम्बद्ध। नो अक्षर-सम्बद्ध के दो भेद-आतोद्य (बाजे आदि का) शब्द, नो-आतोद्य (बांस आदि के फटने से होने वाला) शब्द। आतोद्य के दो भेद-तत और वितत, तत के दो भेद–ततघन और ततशुषिर, तथा वितत के दो भेद-विततघन, वितत-शुषिर। नो-आतोद्य के दो भेद-भूषण, नोभूषण। नोभूषण के दो भेद-ताल और लतिका।२ ।
प्रस्तुत में आतोद्य के सभी प्रकारों का समावेश तत, वितत, घन और शुषिर इन चारों में कर दिया गया है। वृत्तिकार ने ताल को एक प्रकार से घनवाद्य का ही रूप माना है। परन्तु स्थानांग सत्र में ताल और लतिका (लात मारने से होने वाला या बांस का शब्द) को नो-आतोद्य के अन्तर्गत -- नो - भूषण के प्रकारों में गिनाया है।
भगवती सूत्र में वाद्य के तत, वितत, घन और शुषिर इन चारों प्रकारों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार निशाधसूत्र में वितत, तत, घन और शुषिर इन चार प्रकार के शब्दों का प्रस्तुत चतु:सूत्रीक्रम से उल्लेख किया है। ३
'बद्धीसगसदाणि' आदि पदों के अर्थ- 'बद्धीसग' का अर्थ प्राकृत कोष में नहीं मिलता, बद्धग' शब्द मिलता है. जिसका अर्थ तूण वाद्य विशेष किया गया है। तुणयसद्दाणि - तुनतुने के शब्द, पणवसहाणि- ढोल की आवाज, तुम्ब. वियसद्दाणि-तुम्बे के साथ संयुक्त १. (क) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २४० (ख) आचा० वृत्ति पत्रांक ४१२ (ग) दशैव. अ.८ गा. २६
(घ) उत्ताराध्यन अ. ३२ गा. ३८, ३९, ४०, ४१, का भावार्थ २. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१२ (ख) स्थानांग, स्थान- २, उ. ३ सू २११ से २१९ ३. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक ४१२ (ख) निशीथ सूत्र उ. १७ पृ. २००-२०१