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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
अध्ययन में कर आए हैं।
पात्र-ग्रहण-अग्रहण एवं सरंक्षण-विवेक- वस्त्रैषणा-अध्ययन में उल्लिखित 'सअंड' से लेकर, 'आयावेज पयावेज' तक के सभी सूत्रों का वर्णन इस एक ही सूत्र में समुच्चयरूप से दे दिया है। प्रस्तुत सूत्र में वस्त्रैषणा अध्ययन के ११ सूत्रों का निरूपण एवं एक अतिरिक्त सूत्र का समावेश कर दिया है - (१) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र को ग्रहण न करे, (२) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित होने पर भी वह पात्र अपर्याप्त (अभीष्ट कार्य के लिए असमर्थ), अस्थिर, अध्रुव, अधारणीय एवं अकल्प्य हो तो ग्रहण न करे, (३) किन्तु वह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित पर्याप्त, स्थिर, ध्रुव, धारणीय एवं रुचिकर हो तो ग्रहण करे, (४) अपने पात्र को नया सुन्दर बनाने के लिए उसे थोड़ा या बहुत स्नानीय सुगन्धित द्रव्य आदि से घिसे नहीं, (५) पात्र नया बनाने के उद्देश्य से थोड़ा बहुत ठंडे या गर्म जल से उसे धोए नहीं, (६) मेरा पात्र दुर्गन्धित है, यह सोच उसे सुगन्धित एवं उत्कृष्ट बनाने हेतु उस पर स्नानीय सुगन्धित द्रव्य थोड़े बहुत न रगड़े न ही उसे शीतल या गर्म जल से धोए (७) पात्र को सचित्त स्निग्ध सचित्त प्रतिष्ठित पथ्वी पर न सुखाए, (रखे), (८) पात्र को ढूंठ, देहली, ऊखल या स्नानपीठ पर न सुखाए, न ही ऊँचे चलविचल स्थान पर सुखाए, (९) दीवार, भींत, शिला, रोड़े या ऐसे ही अन्य ऊँचे हिलने-डुलने वाले स्थानों पर पात्र न सुखाए, (१०) खंभे, मचान, ऊपर की मंजिल या महल पर या तलघर में या अन्य कम्पित उच्च स्थानों पर पात्र न सुखाए, (११) किन्तु पात्र को एकान्त में ले जाकर अचित्त निर्दोष स्थण्डिलभूमि पर धूल आदि पोंछकर यतनापूर्वक सुखाए। इसमें नौ सूत्र निषेधात्मक हैं और दो सूत्र विधानात्मक हैं। शास्त्रकार ने इसमें एक सूत्र और बढ़ा लेने का संकेत किया है कि पात्र को सुन्दर व चमकदार बनाने के लिए वह तेल, घी, नवनीत आदि उस पर न लगाए।
‘णाणत्तं' तेल्लेण वा घएण वा..... ' पंक्ति के अर्थ में मतभेद - ऊपर जो अर्थ हमने दिया है, उसके अतिरिक्त एक अर्थ और मिलता है - "यदि वह पात्र तेल, घृत या अन्य किसी पदार्थ से स्निग्ध किया हुआ हो तो साधु स्थण्डिलभूमि में जाकर वहाँ भूमि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करे और तत्पश्चात् पात्र को धूलि आदि से प्रमार्जित कर मसल कर रूक्ष बना ले।" परन्तु यह अर्थ यहाँ संगत नहीं होता। ३
६०१. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबढेहिं सहितेहिं सदा जएज्जासि त्ति बेमि। १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०० के आधार पर २. आचारांग मूलपाठ सू० ५५९ से ५७९ तक वृत्ति सहित पत्रांक ३९६ ३. आचारांग, अर्थागम प्रथम खण्ड पृ० १३७ ।। ४. 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स' के बदले किसी-किसी प्रति में 'अहभिक्खुस्स' पाठान्तर है।