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छठा अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ६०२
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६०१. यही (पात्रैषणा विवेक ही) वस्तुत: उस साधु या साध्वी का समग्र आचार है, जिसमें वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि सर्व अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे।
- ऐसा मैं कहता हूँ। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त॥
बीओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक पात्र बीजादियुक्त होने पर ग्रहण-विधि
६०२. से भिक्खू वा २ गाहावइकुलं पिंडवातपडियाए पविसमाणे ' पुव्वामेव पेहाए पडिग्गहगं, अवहट्ट, पाणे पमज्जिय रयं, ततो संजयामेव गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए णिक्खमेज वा पविसेज वा।केवली बूया-आयाणमेयं। अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेजा, अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा ४ जं पुव्वामेव पेहाए पडिग्गहं, अवहट्ट पाणे, पमजिय रयं, ततो संजयामेव गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमेज वा पविसेज वा।
६०२. गृहस्थ के घर में आहर-पानी के लिए प्रवेश करने से पूर्व ही साधु या साध्वी अपने पात्र को भलीभाँति देखे, उसमें कोई प्राणी हों तो उन्हें निकालकर एकान्त में छोड़ दे और धूल को पोंछकर झाड़ दे। तत्पश्चात् साधु अथवा साध्वी आहार-पानी के लिए उपाश्रय से बाहर निकले या गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। केवली भगवान् कहते हैं- ऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि पात्र के अन्दर द्वीन्द्रिय आदि प्राणी, बीज या रज आदि रह सकते हैं, पात्रों का प्रतिलेखन – प्रमार्जन किये बिना उन जीवों की विराधना हो सकती है। इसीलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने साधुओं के लिए पहले से ही इस प्रकार की प्रतिज्ञा, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि आहार-पानी के लिए जाने से पूर्व साधु पात्र का सम्यक् निरीक्षण करके कोई प्राणी हो तो उसे निकाल कर एकान्त में छोड़ दे, रज आदि को पोंछकर झाड़ दे और तब आहार के लिए यतनापूर्वक उपाश्रय से निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे।
विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भिक्षाटन से पूर्व पात्र को अच्छी तरह देखभाल और झाड़-पोंछ लेना आवश्यक बताया है, ऐसा न करने से आत्म-विराधना और जीव-विराधना के होने का तो
१. 'पविसमाणे' के बदले 'पवितु समाणे' पाठान्तर है। २. किसी किसी प्रति में 'रए वा' पाठ नहीं है, उसके बदले 'हरिए वा' पाठ है।