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________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ५९९-६०० २७१ पात्र-प्रतिलेखन ५९९. सिया परो' णेत्ता पडिग्गहगं णिसिरेजा,से पुव्वामेव आलोएजाह-आउसो! ति वा, भइणी! ति वा, तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेण पडिलेहिस्सामि। केवली बूयाह-आयाणमेयं, अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणिवा, अह भिक्खणं पुव्वोवदिट्ठा ४ जं पुव्वामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेण पडिलेहेज्जा। ६००. सअंडादि सव्वे आलावगा : जहा वत्थेसणाए, णाणतं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा सिणाणादि जाव अण्णतरंसिवा तहप्पगारंसिथंडिल्लंसि पडिलेहिय २ पमजिय २ ततो संजयामेव आमज्ज वा [जाव पयावेज वा]। ५९९. कदाचित् कोई गृहनायक पात्र को सुसंस्कृत आदि किये बिना ही लाकर साधु को देने लगे तो साधु विचारपूर्वक पहले ही उससे कहे-"आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन ! मैं तुम्हारे इस पात्र को अन्दर-बाहर चारों ओर से भलीभाँति प्रतिलेखन करूँगा, क्योंकि प्रतिलेखन किये बिना पात्रग्रहण करना केवली भगवान् ने कर्मबन्ध का कारण बताया है। सम्भव है उस पात्र में जीव जन्तु हों, बीज हों या हरी (वनस्पति) आदि हो। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश किया है या ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु को पात्र ग्रहण करने से पूर्व ही उस पात्र को अन्दर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। ६००. अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र ग्रहण न करे. इत्यादि सारे आलापक वस्त्रैषणा के समान जान लेने चाहिए। विशेष बात इतनी ही है कि यदि वह तेल, घी, नवनीत आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर या स्नानीय पदार्थों से रगड़कर पात्र को नया व सुन्दर बनाना चाहे, इत्यादि वर्णन ठेठ 'अन्य उस प्रकार की स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर यतनापूर्वक उस पात्र को साफ करे यावत् धूप में सुखाए' तक वस्त्रैषणा अध्ययन की तरह ही समझ लेना चाहिए। विवेचन- पात्रग्रहण से पूर्व प्रतिलेखन आवश्यक प्रस्तुत सूत्र में वस्त्रैषणा अध्ययन की तरह यहाँ पात्र ग्रहण करने से पूर्व प्रतिलेखन को अनिवार्य बताया है। बिना प्रतिलेखन किये पात्र ग्रहण कर लेने में उन्हीं खतरों या दोषों की सम्भावना है, जिनका उल्लेख हम वस्त्रैषणा १. 'परो णेत्ता' के बदले पाठान्तर है 'परो उवणेत्ता,' अर्थ है-'पर - गृहस्थ लाकर।' २. 'पडिग्गहगं' के बदले पाठान्तर है- पडिग्गह।। ३. यहाँ 'पव्वोदिवा' के आगे'४'का अंक सूत्र ३५७ के अनुसार 'एस उवएसो' तक के पाठ का सूचक है। ४. 'सअंडादि सव्वे आलावगा जहा वत्थेसणाए' पाठ वस्त्रैषणाध्ययन के सूत्र ५६९ से ५७९ तक के समग्र वर्णन का सूचक समझें, 'पयावेज वा' पाठ तक।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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