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आचारांग सूत्र -द्वितीय श्रुतस्कन्ध
५९७. कदाचित् कोई गृहनायक पात्रान्वेषी साधु को देखकर अपने परिवार के किसी पुरुष या स्त्री को बुलाकर यों कहे - "आयुष्मन्! या बहन ! वह पात्र लाओ, हम उस पर तेल, घी, नवनीत या वसा चुपड़कर साधु को देंगे... शेष सारा वर्णन, इसी प्रकार स्नानीय पदार्थ आदि से एक बार, बार-बार घिसकर... इत्यादि वर्णन, तथैव शीतल प्रासुक जल, उष्ण जल से या एक बार या बार-बार धोकर ... आदि अवशिष्ट समग्र वर्णन, इसी प्रकार कंदादि उसमें से निकाल कर साफ करके ... इत्यादि सारा वर्णन भी वस्त्रैषणा अध्ययन में जिस प्रकार है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए।
विशेषता सिर्फ यही है कि वस्त्र के बदले यहाँ 'पात्र' शब्द कहना चाहिए।
५९८. कदाचित् कोई गृहनायक साधु से इस प्रकार कहे- "आयुष्मन् श्रमण! आप मुहूर्तपर्यन्त ठहरिए। जब तक हम अशन आदि चतुर्विध आहार जुटा लेंगे या तैयार कर लेंगे, तब हम आप आयुष्मान् को पानी और भोजन से भरकर पात्र देंगे, क्योंकि साधु को खाली पात्र देना अच्छा और उचित नहीं होता।" इस पर साधु मन में विचार कर पहले ही उस गृहस्थ से कह दे"आयुष्मान् गृहस्थ! या आयुष्मती बहन! मेरे लिए आधाकर्मी चतुर्विध आहार खाना या पीना कल्पनीय नहीं है। अतः तुम आहार की सामग्री मत जुटाओ, आहार तैयार न करो। यदि मुझे पात्र देना चाहते/चाहती हो तो ऐसे खाली ही दे दो।"
साधु के इस प्रकार कहने पर यदि कोई गृहस्थ अशनादि चतुर्विध आहार की सामग्री जुटाकर अथवा आहार तैयार करके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पात्र देने लगे तो उस प्रकार के । (भोजन-पानी सहित) पात्र को अप्रासक और अनेषणीय समझकर मिलने पर ग्रहण न करे।
विवेचन - अनेषणीय पात्र ग्रहण न करे- प्रस्तुत तीन सूत्रों में वस्त्रैषणा अध्ययन में वर्णित वस्त्र-ग्रहण-निषेध की तरह अनेषणीय पात्र-ग्रहण-निषेध का वर्णन है। साधु के लिये पात्र अनेषणीय अग्राह्य कब हो जाता है? इसके लिए वस्त्रैषणा की तरह यहाँ भी संकेत किया गया है(१) साधु को थोड़ी देर बाद से लेकर एक मास बाद आकर पात्र ले जाने का कहे (२) पात्र के तेल, घी आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर देने को कहे (३) पात्र पर स्नानीय सुगन्धित पदार्थ रगड़ कर या मलकर देने को कहे, (४) ठण्डे या गर्म प्रासुक जल से धोकर देने को कहे, (५) पात्र में रखे कंद आदि निकाल कर उसे साफ कर देने को कहे, (६) पात्र में आहार-पानी तैयार करवाकर उनसे भरकर साधु को देने को कहे। इन सब स्थितियों में साधु के पात्र को अनेषणीय एवं अग्राह्य बनाने के गृहस्थ के विचार सुनते ही सर्वप्रथम उसे सावधान कर देना चाहिए कि ऐसा अनेषणीय पात्र लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है; यदि देना चाहते हो तो संस्कार या परिकर्म किये बिना अथवा सदोष आहार से भरे बिना, ऐसे ही दे दो।१
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आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक ४०० के आधार पर