________________
२६३
छटुं अज्झयणं 'पाएसणा' __(पढमो उद्देसओ) पात्रैषणाः षष्ठ अध्ययनः प्रथम उद्देशक
पात्र के प्रकार एवं मर्यादा
५८८. से भिक्खु वा २ अभिकंखेजा पायं एसित्तए, से जं पुण पायं जाणेजा, तंजहा- लाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे णिग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धारेज्जा, णो बितियं।
५८८. संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो जिन पात्रों को जाने (स्वीकार करे) वे इस प्रकार हैं- तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र । इन तीनों प्रकार के पात्रों को साध ग्रहण कर सकता है। १ जो निर्ग्रन्थ तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और
१. निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए जहाँ भगवान् महावीर ने लकड़ी के, तुम्बे के और मिट्टी के पात्र रखने का विधान
किया , वहाँ शाक्य-श्रमणों के लिए तथागत बुद्ध ने लकड़ी के पात्र का निषेध कर, लोहे का और मिट्टी का पात्र रखने का विधान किया है। विनयपिटक की घटना से ज्ञात होता है कि बौद्ध पहले मिट्टी का पात्र भी रखते थे किन्तु एक घटना के पश्चात् बुद्ध ने पात्र का निषेध कर दिया, वह घटना संक्षेप में इस प्रकार हैएक बार राजगृह के किसी श्रेष्ठी ने चंदन का एक सुन्दर, मूल्यवान् पात्र बनवाकर बांस के सिरे पर ऊँचा टांक कर यह घोषणा कर दी कि-"जो श्रमण, ब्राह्मण, अर्हत्, ऋद्धिमान हो, वह इस पात्र को उतार
ले।"
उस समय मौद्गल्यायन और पिंडोल भारद्वाज पात्र-चीवर लेकर राजगृह में भिक्षार्थ आये। पिंडोल भारद्वाज ने आकाश में उड़कर वह पात्र उतार लिया और राजगृह के तीन चक्कर किये। इस प्रकार चमत्कार से प्रभावित बहुत-से लोग हल्ला करते हुए तथागत के पास पहुँचे। तथागत बुद्ध ने पूरी घटना सुनी तो उन्हें बहुत खेद हुआ। भारद्वाज को बुलाकर भिक्षु-संघ के सामने फटकारते हुए कहा- 'भारद्वाज! यह अनुचित है, श्रमण के अयोग्य है। एक तुच्छ लकड़ी के बर्तन के लिए कैसे तू गृहस्थों को अपना ऋद्धि, प्रातिहार्य दिखायेगा?' फिर बुद्ध ने भिक्षुसंघ को आज्ञा दी, उस पात्र को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर भिक्षुओं को अंजन पीसने के लिये दे दो। इसी संदर्भ में भिक्षुसंघ को सम्बोधित करते हुये कहा भिक्षु को सुवर्णमय, रौप्य, मणि, कांस्य, स्फटिक, काँच, तांबा, सीसा आदि का पात्र नहीं रखना चाहिए। भिक्षुओ। लोहे के और मिट्टी के दो पात्रों की अनुज्ञा देता हूँ।
- विनयपिटक, चुल्लवग्ग खुद्दक वत्थुखंध (५/१/१० पृ० ४२२-२३) इसी प्रकरण में एक जगह लकड़ी के पात्र का निषेध करके लकड़ी के भांडों की अनुमति दी है।
- पृष्ठ. ४४९