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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
पात्रैषणाः षष्ठ अध्ययन
प्राथमिक
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आचारांग सूत्र (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) के छठे अध्ययन का नाम पात्रैषणा है। जब तक साधक अभिग्रहपूर्वक दृढमनोबल के साथ कर-पात्र' की भूमिका पर नहीं पहुँच जाता, तब तक निर्ग्रन्थ साधु के लिये निर्दोष आहार-पानी ग्रहण एवं सेवन करने के लिए पात्र की आवश्यकता रहती है। किन्तु साधु किस प्रकार के, कैसे,कितने-कितने मूल्य के पात्र रखे, जिससे उसकी उन पर ममता-मूर्छा न जागे। न ही पात्र ग्रहण में उद्गमादि एषणादोष लगे, और न ही पात्रों का उपयोग करने में रागादि से युक्त अंगार, धूम आदि दोष लगें; इन सब दृष्टियों से पात्रैषणा अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है। १ 'पात्र' शब्द के दो भेद हैं- द्रव्यपात्र और भावपात्र । भावपात्र तो साधु आदि हैं। उनकी आत्मरक्षा या उनकी संयम-परिपालना के लिए द्रव्यपात्र का विधान है। द्रव्यपात्र हैं—एकेन्द्रियादि शरीर से (काष्ठ आदि से) निष्पन्न पात्र । इस अध्ययन में द्रव्यपात्र का वर्णन ही अभीष्ट है। इस अध्ययन में पात्र की गवेषणा , ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा इन तीनों पात्रैषणाओं की दृष्टि से वर्णन है, इसलिए इसका सार्थक नाम -'पात्रैषणा' रखा गया है। इस अध्ययन के दो उद्देशक हैं—प्रथम उद्देशक में पात्रग्रहणविधि का निरूपण है, जबकि द्वितीय उद्देशक में मुख्यतया पात्र धारणविधि का प्रतिपादन है। इस अध्ययन में पात्रैषणा सम्बन्धी वर्णन प्रायः वस्त्रैषणा' - अध्ययन के क्रमानुसार किया गया है। यह अध्ययन सूत्र ५८८ से प्रारम्भ होकर ६०६ पर समाप्त होता है।
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१. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३९९ के आधार पर २. (क) आचारांग नियुक्ति गा. ३१५
(ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३९९